Friday 31 July 2015

नागा साधु - सम्पूर्ण जानकारी और इतिहास (Naga Sadhu - Complete Information and History)


सभी साधुओं में नागा साधुओं को सबसे ज्यादा हैरत और अचरज से देखा जाता है। यह आम जनता के बीच एक कौतुहल का विषय होते है। यदि आप यह सोचते है की नागा साधु बनना बड़ा आसान है तो यह आपकी गलत सोच है। नागा साधुओं की ट्रेनिंग सेना के कमांडों की ट्रेनिंग से भी ज्यादा कठिन होती है, उन्हें दीक्षा लेने से पूर्व खुद का पिंड दान और श्राद्ध तर्पण करना पड़ता है। पुराने समय में अखाड़ों में नाग साधुओं को मठो की रक्षा के लिए एक योद्धा की तरह तैयार किया जाता था। आपको यह जानकार आश्चर्य होगा की मठों और मंदिरों की रक्षा के लिए इतिहास में नाग साधुओं ने कई लड़ाइयां भी लड़ी है। आज इस लेख में हम आपको नागा साधुओं के बारे में उनके इतिहास से लेकर उनकी दीक्षा तक सब-कुछ विस्तारपूर्वक बताएंगे।
नाग साधुओं के नियम :-
वर्त्तमान में भारत में नागा साधुओं के कई प्रमुख अखाड़े है। वैसे तो हर अखाड़े में दीक्षा के कुछ अपने नियम होते हैं, लेकिन कुछ कायदे ऐसे भी होते हैं, जो सभी दशनामी अखाड़ों में एक जैसे होते हैं।
1- ब्रह्मचर्य का पालन- कोई भी आम आदमी जब नागा साधु बनने के लिए आता है, तो सबसे पहले उसके स्वयं पर नियंत्रण की स्थिति को परखा जाता है। उससे लंबे समय ब्रह्मचर्य का पालन करवाया जाता है। इस प्रक्रिया में सिर्फ दैहिक ब्रह्मचर्य ही नहीं, मानसिक नियंत्रण को भी परखा जाता है। अचानक किसी को दीक्षा नहीं दी जाती। पहले यह तय किया जाता है कि दीक्षा लेने वाला पूरी तरह से वासना और इच्छाओं से मुक्त हो चुका है अथवा नहीं।
2- सेवा कार्य- ब्रह्मचर्य व्रत के साथ ही दीक्षा लेने वाले के मन में सेवाभाव होना भी आवश्यक है। यह माना जाता है कि जो भी साधु बन रहा है, वह धर्म, राष्ट्र और मानव समाज की सेवा और रक्षा के लिए बन रहा है। ऐसे में कई बार दीक्षा लेने वाले साधु को अपने गुरु और वरिष्ठ साधुओं की सेवा भी करनी पड़ती है। दीक्षा के समय ब्रह्मचारियों की अवस्था प्राय: 17-18 से कम की नहीं रहा करती और वे ब्राह्मण, क्षत्रिय व वैश्य वर्ण के ही हुआ करते हैं।
3- खुद का पिंडदान और श्राद्ध- दीक्षा के पहले जो सबसे महत्वपूर्ण कार्य है, वह है खुद का श्राद्ध और पिंडदान करना। इस प्रक्रिया में साधक स्वयं को अपने परिवार और समाज के लिए मृत मानकर अपने हाथों से अपना श्राद्ध कर्म करता है। इसके बाद ही उसे गुरु द्वारा नया नाम और नई पहचान दी जाती है।
4- वस्त्रों का त्याग- नागा साधुओं को वस्त्र धारण करने की भी अनुमति नहीं होती। अगर वस्त्र धारण करने हों, तो सिर्फ गेरुए रंग के वस्त्र ही नागा साधु पहन सकते हैं। वह भी सिर्फ एक वस्त्र, इससे अधिक गेरुए वस्त्र नागा साधु धारण नहीं कर सकते। नागा साधुओं को शरीर पर सिर्फ भस्म लगाने की अनुमति होती है। भस्म का ही श्रंगार किया जाता है।
5- भस्म और रुद्राक्ष- नागा साधुओं को विभूति एवं रुद्राक्ष धारण करना पड़ता है, शिखा सूत्र (चोटी) का परित्याग करना होता है। नागा साधु को अपने सारे बालों का त्याग करना होता है। वह सिर पर शिखा भी नहीं रख सकता या फिर संपूर्ण जटा को धारण करना होता है।
6- एक समय भोजन- नागा साधुओं को रात और दिन मिलाकर केवल एक ही समय भोजन करना होता है। वो भोजन भी भिक्षा मांग कर लिया गया होता है। एक नागा साधु को अधिक से अधिक सात घरों से भिक्षा लेने का अधिकार है। अगर सातों घरों से कोई भिक्षा ना मिले, तो उसे भूखा रहना पड़ता है। जो खाना मिले, उसमें पसंद-नापसंद को नजर अंदाज करके प्रेमपूर्वक ग्रहण करना होता है।
7- केवल पृथ्वी पर ही सोना- नागा साधु सोने के लिए पलंग, खाट या अन्य किसी साधन का उपयोग नहीं कर सकता। यहां तक कि नागा साधुओं को गादी पर सोने की भी मनाही होती है। नागा साधु केवल पृथ्वी पर ही सोते हैं। यह बहुत ही कठोर नियम है, जिसका पालन हर नागा साधु को करना पड़ता है।
8- मंत्र में आस्था- दीक्षा के बाद गुरु से मिले गुरुमंत्र में ही उसे संपूर्ण आस्था रखनी होती है। उसकी भविष्य की सारी तपस्या इसी गुरु मंत्र पर आधारित होती है।
9- अन्य नियम- बस्ती से बाहर निवास करना, किसी को प्रणाम न करना और न किसी की निंदा करना तथा केवल संन्यासी को ही प्रणाम करना आदि कुछ और नियम हैं, जो दीक्षा लेने वाले हर नागा साधु को पालन करना पड़ते हैं।

नागा साधु बनने की प्रक्रिया :-
नाग साधु बनने के लिए इतनी कठिन परीक्षाओं से गुजरना पड़ता है कि शायद कोई आम आदमी इसे पार ही नहीं कर पाए। नागाओं को सेना की तरह तैयार किया जाता है। उनको आम दुनिया से अलग और विशेष बनना होता है। इस प्रक्रिया में सालों लग जाते हैं। जानिए कौन सी प्रक्रियाओं से एक नागा को गुजरना होता है-
तहकीकात- जब भी कोई व्यक्ति साधु बनने के लिए किसी अखाड़े में जाता है, तो उसे कभी सीधे-सीधे अखाड़े में शामिल नहीं किया जाता। अखाड़ा अपने स्तर पर ये तहकीकात करता है कि वह साधु क्यों बनना चाहता है? उस व्यक्ति की तथा उसके परिवार की संपूर्ण पृष्ठभूमि देखी जाती है। अगर अखाड़े को ये लगता है कि वह साधु बनने के लिए सही व्यक्ति है, तो ही उसे अखाड़े में प्रवेश की अनुमति मिलती है। अखाड़े में प्रवेश के बाद उसके ब्रह्मचर्य की परीक्षा ली जाती है। इसमें 6 महीने से लेकर 12 साल तक लग जाते हैं। अगर अखाड़ा और उस व्यक्ति का गुरु यह निश्चित कर लें कि वह दीक्षा देने लायक हो चुका है फिर उसे अगली प्रक्रिया में ले जाया जाता है।
महापुरुष- अगर व्यक्ति ब्रह्मचर्य का पालन करने की परीक्षा से सफलतापूर्वक गुजर जाता है, तो उसे ब्रह्मचारी से महापुरुष बनाया जाता है। उसके पांच गुरु बनाए जाते हैं। ये पांच गुरु पंच देव या पंच परमेश्वर (शिव, विष्णु, शक्ति, सूर्य और गणेश) होते हैं। इन्हें भस्म, भगवा, रूद्राक्ष आदि चीजें दी जाती हैं। यह नागाओं के प्रतीक और आभूषण होते हैं।
अवधूत- महापुरुष के बाद नागाओं को अवधूत बनाया जाता है। इसमें सबसे पहले उसे अपने बाल कटवाने होते हैं। इसके लिए अखाड़ा परिषद की रसीद भी कटती है। अवधूत रूप में दीक्षा लेने वाले को खुद का तर्पण और पिंडदान करना होता है। ये पिंडदान अखाड़े के पुरोहित करवाते हैं। ये संसार और परिवार के लिए मृत हो जाते हैं। इनका एक ही उद्देश्य होता है सनातन और वैदिक धर्म की रक्षा।
लिंग भंग- इस प्रक्रिया के लिए उन्हें 24 घंटे नागा रूप में अखाड़े के ध्वज के नीचे बिना कुछ खाए-पीए खड़ा होना पड़ता है। इस दौरान उनके कंधे पर एक दंड और हाथों में मिट्टी का बर्तन होता है। इस दौरान अखाड़े के पहरेदार उन पर नजर रखे होते हैं। इसके बाद अखाड़े के साधु द्वारा उनके लिंग को वैदिक मंत्रों के साथ झटके देकर निष्क्रिय किया जाता है। यह कार्य भी अखाड़े के ध्वज के नीचे किया जाता है। इस प्रक्रिया के बाद वह नागा साधु बन जाता है।
नागाओं के पद और अधिकार- नागा साधुओं के कई पद होते हैं। एक बार नागा साधु बनने के बाद उसके पद और अधिकार भी बढ़ते जाते हैं। नागा साधु के बाद महंत, श्रीमहंत, जमातिया महंत, थानापति महंत, पीर महंत, दिगंबरश्री, महामंडलेश्वर और आचार्य महामंडलेश्वर जैसे पदों तक जा सकता है।
महिलाएं भी बनती है नाग साधू :-
वर्तमान में कई अखाड़ों मे महिलाओं को भी नागा साधू की दीक्षा दी जाती है। इनमे विदेशी महिलाओं की संख्या भी काफी है। वैसे तो महिला नागा साधू और पुरुष नाग साधू के नियम कायदे समान ही है। फर्क केवल इतना ही है की महिला नागा साधू को एक पिला वस्त्र लपेट केर रखना पड़ता है और यही वस्त्र पहन कर स्नान करना पड़ता है। नग्न स्नान की अनुमति नहीं है, यहाँ तक की कुम्भ मेले में भी नहीं।

अजब-गजब है नागाओं का श्रंगार :-
श्रंगार सिर्फ महिलाओं को ही प्रिय नहीं होता, नागाओं को भी सजना-संवरना अच्छा लगता है। फर्क सिर्फ इतना है कि नागाओं की श्रंगार सामग्री, महिलाओं के सौंदर्य प्रसाधनों से बिलकुल अलग होती है। उन्हें भी अपने लुक और अपनी स्टाइल की उतनी ही फिक्र होती है जितनी आम आदमी को। नागा साधु प्रेमानंद गिरि के मुताबिक नागाओं के भी अपने विशेष श्रंगार साधन हैं। ये आम दुनिया से अलग हैं, लेकिन नागाओं को प्रिय हैं। जानिए नागा साधु कैसे अपना श्रंगार करते हैं-
भस्म- नागा साधुओं को सबसे ज्यादा प्रिय होती है भस्म। भगवान शिव के औघड़ रूप में भस्म रमाना सभी जानते हैं। ऐसे ही शैव संप्रदाय के साधु भी अपने आराध्य की प्रिय भस्म को अपने शरीर पर लगाते हैं। रोजाना सुबह स्नान के बाद नागा साधु सबसे पहले अपने शरीर पर भस्म रमाते हैंं। यह भस्म भी ताजी होती है। भस्म शरीर पर कपड़ों का काम करती है।
फूल- कईं नागा साधु नियमित रूप से फूलों की मालाएं धारण करते हैं। इसमें गेंदे के फूल सबसे ज्यादा पसंद किए जाते हैं। इसके पीछे कारण है गेंदे के फूलों का अधिक समय तक ताजे बना रहना। नागा साधु गले में, हाथों पर और विशेषतौर से अपनी जटाओं में फूल लगाते हैं। हालांकि कई साधु अपने आप को फूलों से बचाते भी हैं। यह निजी पसंद और विश्वास का मामला है।
तिलक- नागा साधु सबसे ज्यादा ध्यान अपने तिलक पर देते हैं। यह पहचान और शक्ति दोनों का प्रतीक है। रोज तिलक एक जैसा लगे, इस बात को लेकर नागा साधु बहुत सावधान रहते हैं। वे कभी अपने तिलक की शैली को बदलते नहीं है। तिलक लगाने में इतनी बारीकी से काम करते हैं कि अच्छे-अच्छे मेकअप मैन मात खा जाएं।
रुद्राक्ष- भस्म ही की तरह नागाओं को रुद्राक्ष भी बहुत प्रिय है। कहा जाता है रुद्राक्ष भगवान शिव के आंसुओं से उत्पन्न हुए हैं। यह साक्षात भगवान शिव के प्रतीक हैं। इस कारण लगभग सभी शैव साधु रुद्राक्ष की माला पहनते हैं। ये मालाएं साधारण नहीं होतीं। इन्हें बरसों तक सिद्ध किया जाता है। ये मालाएं नागाओं के लिए आभा मंडल जैसा वातावरण पैदा करती हैं। कहते हैं कि अगर कोई नागा साधु किसी पर खुश होकर अपनी माला उसे दे दे तो उस व्यक्ति के वारे-न्यारे हो जाते हैं।
लंगोट- आमतौर पर नागा साधु निर्वस्त्र ही होते हैं, लेकिन कई नागा साधु लंगोट धारण भी करते हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, जैसे भक्तों के उनके पास आने में कोई झिझक ना रहे। कई साधु हठयोग के तहत भी लंगोट धारण करते हैं- जैसे लोहे की लंगोट, चांदी की लंगोट, लकड़ी की लंगोट। यह भी एक तप की तरह होता है।
हथियार- नागाओं को सिर्फ साधु नहीं, बल्कि योद्धा माना गया है। वे युद्ध कला में माहिर, क्रोधी और बलवान शरीर के स्वामी होते हैं। अक्सर नागा साधु अपने साथ तलवार, फरसा या त्रिशूल लेकर चलते हैं। ये हथियार इनके योद्धा होने के प्रमाण तो हैं ही, साथ ही इनके लुक का भी हिस्सा हैं।
चिमटा - नागाओं में चिमटा रखना अनिवार्य होता है। धुनि रमाने में सबसे ज्यादा काम चिमटे का ही पड़ता है। चिमटा हथियार भी है और औजार भी। ये नागाओं के व्यक्तित्व का एक अहम हिस्सा होता है। ऐसा उल्लेख भी कई जगह मिलता है कि कई साधु चिमटे से ही अपने भक्तों को आशीर्वाद भी देते थे। महाराज का चिमटा लग जाए तो नैया पार हो जाए।
रत्न- कईं नागा साधु रत्नों की मालाएं भी धारण करते हैं। महंगे रत्न जैसे मूंगा, पुखराज, माणिक आदि रत्नों की मालाएं धारण करने वाले नागा कम ही होते हैं। उन्हें धन से मोह नहीं होता, लेकिन ये रत्न उनके श्रंगार का आवश्यक हिस्सा होते हैं।
जटा- जटाएं भी नागा साधुओं की सबसे बड़ी पहचान होती हैं। मोटी-मोटी जटाओं की देख-रेख भी उतने ही जतन से की जाती है। काली मिट्टी से उन्हें धोया जाता है। सूर्य की रोशनी में सुखाया जाता है। अपनी जटाओं के नागा सजाते भी हैं। कुछ फूलों से, कुछ रुद्राक्षों से तो कुछ अन्य मोतियों की मालाओं से जटाओं का श्रंगार करते हैं।
दाढ़ी- जटा की तरह दाढ़ी भी नागा साधुओं की पहचान होती है। इसकी देखरेख भी जटाओं की तरह ही होती है। नागा साधु अपनी दाढ़ी को भी पूरे जतन से साफ रखते हैं।
पोषाक चर्म- जिस तरह भगवान शिव बाघंबर यानी शेर की खाल को वस्त्र के रूप में पहनते हैं, वैसे ही कई नागा साधु जानवरों की खाल पहनते हैं- जैसे हिरण या शेर। हालांकि शिकार और पशु खाल पर लगे कड़े कानूनों के कारण अब पशुओं की खाल मिलना मुश्किल होती है, फिर भी कई साधुओं के पास जानवरों की खाल देखी जा सकती है।
नाग साधुओं का इतिहास :-
भारतीय सनातन धर्म के वर्तमान स्वरूप की नींव आदिगुरू शंकराचार्य ने रखी थी। शंकर का जन्म ८वीं शताब्दी के मध्य में हुआ था जब भारतीय जनमानस की दशा और दिशा बहुत बेहतर नहीं थी। भारत की धन संपदा से खिंचे तमाम आक्रमणकारी यहाँ आ रहे थे। कुछ उस खजाने को अपने साथ वापस ले गए तो कुछ भारत की दिव्य आभा से ऐसे मोहित हुए कि यहीं बस गए, लेकिन कुल मिलाकर सामान्य शांति-व्यवस्था बाधित थी। ईश्वर, धर्म, धर्मशास्त्रों को तर्क, शस्त्र और शास्त्र सभी तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में शंकराचार्य ने सनातन धर्म की स्थापना के लिए कई कदम उठाए जिनमें से एक था देश के चार कोनों पर चार पीठों का निर्माण करना। यह थीं गोवर्धन पीठ, शारदा पीठ, द्वारिका पीठ और ज्योतिर्मठ पीठ। इसके अलावा आदिगुरू ने मठों-मन्दिरों की सम्पत्ति को लूटने वालों और श्रद्धालुओं को सताने वालों का मुकाबला करने के लिए सनातन धर्म के विभिन्न संप्रदायों की सशस्त्र शाखाओं के रूप में अखाड़ों की स्थापना की शुरूआत की।
आदिगुरू शंकराचार्य को लगने लगा था सामाजिक उथल-पुथल के उस युग में केवल आध्यात्मिक शक्ति से ही इन चुनौतियों का मुकाबला करना काफी नहीं है। उन्होंने जोर दिया कि युवा साधु व्यायाम करके अपने शरीर को सुदृढ़ बनायें और हथियार चलाने में भी कुशलता हासिल करें। इसलिए ऐसे मठ बने जहाँ इस तरह के व्यायाम या शस्त्र संचालन का अभ्यास कराया जाता था, ऐसे मठों को अखाड़ा कहा जाने लगा। आम बोलचाल की भाषा में भी अखाड़े उन जगहों को कहा जाता है जहां पहलवान कसरत के दांवपेंच सीखते हैं। कालांतर में कई और अखाड़े अस्तित्व में आए। शंकराचार्य ने अखाड़ों को सुझाव दिया कि मठ, मंदिरों और श्रद्धालुओं की रक्षा के लिए जरूरत पडऩे पर शक्ति का प्रयोग करें। इस तरह बाह्य आक्रमणों के उस दौर में इन अखाड़ों ने एक सुरक्षा कवच का काम किया। कई बार स्थानीय राजा-महाराज विदेशी आक्रमण की स्थिति में नागा योद्धा साधुओं का सहयोग लिया करते थे। इतिहास में ऐसे कई गौरवपूर्ण युद्धों का वर्णन मिलता है जिनमें 40 हजार से ज्यादा नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। अहमद शाह अब्दाली द्वारा मथुरा-वृन्दावन के बाद गोकुल पर आक्रमण के समय नागा साधुओं ने उसकी सेना का मुकाबला करके गोकुल की रक्षा की।

नागा साधुओं के प्रमुख अखाड़े :-
भारत की आजादी के बाद इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया। इन अखाड़ों के प्रमुख ने जोर दिया कि उनके अनुयायी भारतीय संस्कृति और दर्शन के सनातनी मूल्यों का अध्ययन और अनुपालन करते हुए संयमित जीवन व्यतीत करें। इस समय 13 प्रमुख अखाड़े हैं जिनमें प्रत्येक के शीर्ष पर महन्त आसीन होते हैं। इन प्रमुख अखाड़ों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार हैं:-
1. श्री निरंजनी अखाड़ा:- यह अखाड़ा 826 ईस्वी में गुजरात के मांडवी में स्थापित हुआ था। इनके ईष्ट देव भगवान शंकर के पुत्र कार्तिकस्वामी हैं। इनमें दिगम्बर, साधु, महन्त व महामंडलेश्वर होते हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, उज्जैन, हरिद्वार, त्र्यंबकेश्वर व उदयपुर में हैं।
2. श्री जूनादत्त या जूना अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1145 में उत्तराखण्ड के कर्णप्रयाग में स्थापित हुआ। इसे भैरव अखाड़ा भी कहते हैं। इनके ईष्ट देव रुद्रावतार दत्तात्रेय हैं। इसका केंद्र वाराणसी के हनुमान घाट पर माना जाता है। हरिद्वार में मायादेवी मंदिर के पास इनका आश्रम है। इस अखाड़े के नागा साधु जब शाही स्नान के लिए संगम की ओर बढ़ते हैं तो मेले में आए श्रद्धालुओं समेत पूरी दुनिया की सांसें उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए रुक जाती हैं।
3. श्री महानिर्वाण अखाड़ा:- यह अखाड़ा 681 ईस्वी में स्थापित हुआ था, कुछ लोगों का मत है कि इसका जन्म बिहार-झारखण्ड के बैजनाथ धाम में हुआ था, जबकि कुछ इसका जन्म स्थान हरिद्वार में नील धारा के पास मानते हैं। इनके ईष्ट देव कपिल महामुनि हैं। इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, ओंकारेश्वर और कनखल में हैं। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि 1260 में महंत भगवानंद गिरी के नेतृत्व में 22 हजार नागा साधुओं ने कनखल स्थित मंदिर को आक्रमणकारी सेना के कब्जे से छुड़ाया था।
4. श्री अटल अखाड़ा:- यह अखाड़ा 569 ईस्वी में गोंडवाना क्षेत्र में स्थापित किया गया। इनके ईष्ट देव भगवान गणेश हैं। यह सबसे प्राचीन अखाड़ों में से एक माना जाता है। इसकी मुख्य पीठ पाटन में है लेकिन आश्रम कनखल, हरिद्वार, इलाहाबाद, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में भी हैं।
5. श्री आह्वान अखाड़ा:- यह अखाड़ा 646 में स्थापित हुआ और 1603 में पुनर्संयोजित किया गया। इनके ईष्ट देव श्री दत्तात्रेय और श्री गजानन हैं। इस अखाड़े का केंद्र स्थान काशी है। इसका आश्रम ऋषिकेश में भी है। स्वामी अनूपगिरी और उमराव गिरी इस अखाड़े के प्रमुख संतों में से हैं।
6. श्री आनंद अखाड़ा:- यह अखाड़ा 855 ईस्वी में मध्यप्रदेश के बेरार में स्थापित हुआ था। इसका केंद्र वाराणसी में है। इसकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन में भी हैं।
7. श्री पंचाग्नि अखाड़ा:- इस अखाड़े की स्थापना 1136 में हुई थी। इनकी इष्ट देव गायत्री हैं और इनका प्रधान केंद्र काशी है। इनके सदस्यों में चारों पीठ के शंकराचार्य, ब्रहमचारी, साधु व महामंडलेश्वर शामिल हैं। परंपरानुसार इनकी शाखाएं इलाहाबाद, हरिद्वार, उज्जैन व त्र्यंबकेश्वर में हैं।
8.श्री नागपंथी गोरखनाथ अखाड़ा:- यह अखाड़ा ईस्वी 866 में अहिल्या-गोदावरी संगम पर स्थापित हुआ। इनके संस्थापक पीर शिवनाथजी हैं। इनका मुख्य दैवत गोरखनाथ है और इनमें बारह पंथ हैं। यह संप्रदाय योगिनी कौल नाम से प्रसिद्ध है और इनकी त्र्यंबकेश्वर शाखा त्र्यंबकंमठिका नाम से प्रसिद्ध है।
9. श्री वैष्णव अखाड़ा:- यह बालानंद अखाड़ा ईस्वी 1595 में दारागंज में श्री मध्यमुरारी में स्थापित हुआ। समय के साथ इनमें निर्मोही, निर्वाणी, खाकी आदि तीन संप्रदाय बने। इनका अखाड़ा त्र्यंबकेश्वर में मारुति मंदिर के पास था। 1848 तक शाही स्नान त्र्यंबकेश्वर में ही हुआ करता था। परंतु 1848 में शैव व वैष्णव साधुओं में पहले स्नान कौन करे इस मुद्दे पर झगड़े हुए। श्रीमंत पेशवाजी ने यह झगड़ा मिटाया। उस समय उन्होंने त्र्यंबकेश्वर के नजदीक चक्रतीर्था पर स्नान किया। 1932 से ये नासिक में स्नान करने लगे। आज भी यह स्नान नासिक में ही होता है।
10. श्री उदासीन पंचायती बड़ा अखाड़ा:- इस संप्रदाय के संस्थापक श्री चंद्रआचार्य उदासीन हैं। इनमें सांप्रदायिक भेद हैं। इनमें उदासीन साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या ज्यादा है। उनकी शाखाएं शाखा प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर, भदैनी, कनखल, साहेबगंज, मुलतान, नेपाल व मद्रास में है।
11. श्री उदासीन नया अखाड़ा:- इसे बड़ा उदासीन अखाड़ा के कुछ सांधुओं ने विभक्त होकर स्थापित किया। इनके प्रवर्तक मंहत सुधीरदासजी थे। इनकी शाखाएं प्रयागए हरिद्वार, उज्जैन, त्र्यंबकेश्वर में हैं।
12. श्री निर्मल पंचायती अखाड़ा:- यह अखाड़ा 1784 में स्थापित हुआ। 1784 में हरिद्वार कुंभ मेले के समय एक बड़ी सभा में विचार विनिमय करके श्री दुर्गासिंह महाराज ने इसकी स्थापना की। इनकी ईष्ट पुस्तक श्री गुरुग्रन्थ साहिब है। इनमें सांप्रदायिक साधु, मंहत व महामंडलेश्वरों की संख्या बहुत है। इनकी शाखाएं प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और त्र्यंबकेश्वर में हैं।
13. निर्मोही अखाड़ा:- निर्मोही अखाड़े की स्थापना 1720 में रामानंदाचार्य ने की थी। इस अखाड़े के मठ और मंदिर उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, गुजरात और बिहार में हैं। पुराने समय में इसके अनुयायियों को तीरंदाजी और तलवारबाजी की शिक्षा भी दिलाई जाती थी।

अग्नि-6 की खासियत (AGNI-6 AN INDIAN PRIDE)

बीती शताब्दी में स्वतंत्र भारत ने लगभग 4 बड़े युद्धों को झेला है, वो भी अपने पड़ोसी देशों से, ऐसे में भारत को पहले से ही तैयार रहना चाहिए किसी भी युद्ध के लिए !! अग्नि 6 की विशेषताएं :-
1. यह अग्नि सीरीज की सबसे एडवांस अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल (ICBM) होगी, जो 10000 से 12000 किलोमीटर की रेंज तक मार कर सकने में सक्षम होगी !Agni 4 5 and 6 ranges2. इसे रक्षा अनुसंधान विकास संगठन (DRDO) द्वारा विकसित किया जा रहा है, यह प्रोजेक्ट 2017-18 तक पूरा हो जायेगा !Agni3. यह मिसाइल अपने साथ अधिकतम 10 न्युक्लियर वारहेड (बम) साथ ले जा सकने में सक्षम होगी, यह त्रिस्तरीय प्रक्षेपास्त्र होगा, इसकी लम्बाई लगभग 20 मीटर होगी !Agni_64. इसे टाट्रा ट्रांसपोर्टर इरेक्टर लॉन्चर और रेल मोबाइल लांचर के अलावा सबमरीन से भी लॉन्च किया जा सकेगा ! यानी इसे देश के किसी भी कोने तक सड़क माध्यम से जाया सकेगा !flight agni 65.अग्नि 6 चाइना की डोंगफेंग 31(A) से बेहतर होगी, इसकी जद में अमेरिका को छोड़ के यूरोप, अफ्रीका और चीन सहित पूरा एशिया होंगे ! ICBM तकनीकी केवल भारत, चीन, अमेरिका, इस्राइल और फ्रांस के ही पास है !agni6. अग्नि-6 का वजन 65 से 70 टन होगा, यह अग्नि-5 से ज्यादा परिवर्धित मिसाइल होगी, इसका व्यास लगभग 1.1 मीटर होगा ! यह अग्नि के अन्य संस्करणों से ज्यादा ट्रेंडी और सिल्की होगा !
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7. 2009 में भारत सरकार ने 10000 किलोमीटर से ऊपर की रेंज की मिसाइल को मंजूरी नहीं दी थी, परन्तु बाद में इसे मंजूर कर लिया गया !AGNI8. यह मिसाइल MIRV यानि मल्टीपल टारगेट को एक साथ, भेदने वाले भारत की पहली मिसाइल होगी, इसके पहले अग्नि सीरीज के अन्य प्रक्षेपास्त्र एक समय में केवल एक लक्ष्य ही भेद सकते थे ! यह सामरिक रूप से कितनी महत्व पूर्ण हैं, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि इसे 1970 के दशक में ही विकसित कर लिया गया था !MIRV9. अग्नि-6 के बाद DRDO एक और बड़े प्रोजेक्ट “सूर्य” सीरीज का खाका तैयार कर चुका है, इस मिसाइल की अधिकतम रेंज 12000 -16000 किलोमीटर होगी ! उम्मीद है कि हम 2020 तक इसका सफल परीक्षण कर लेंगे, यह मिसाइल “संलयित” परमाणु हथियारों से लैस होगी !DRDO10. ICBM, MRBM और SRBM नाभकीय हथियारों के डिलीवरी प्लेटफॉर्म हैं, भारत हमेंशा से ही वैश्विक शान्ति पर भरोसा करता आया है ! फिर भी अपने शत्रुओं पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने अपनी सुरक्षा को और पुख्ता करने के लिए भारत इन परमाणु हथियारों का निर्माण कर रहा है ! हमारी परमाणु योग्यता चीन और पकिस्तान पर लगाम लाने के लिए काफी है!missiles

Wednesday 22 July 2015

Cheraman Juma Masjid: India's first mosque built during Prophet Mohammad's lifetime

Cheraman Juma Masjid: India's first mosque built during Prophet Mohammad's lifetime
Kodungallur: One will find nothing unusual about this place of worship for Muslims as one drives past this town in central Kerala, just 30 km north of Kochi. But it's when you go in and chat up with the volunteers and office-bearers that the enormity of its legacy actually hits you.
For Cheraman Jum'ah Masjid in this town, also known by its anglicised name Cranganore, is not just the oldest in India and the subcontinent but one built during the lifetime of Prophet Mohammad in 629 AD by an Arab propagator of Islam, Malik Ibn Dinar.
It is also testimony to two facts. One, Islam came to India long before the Mughals came in from the northwest. Two, the entry of Islam was smooth and Muslims enjoyed the full patronage of the locals irrespective of their religions - a facet that is still visible and cherished here.
This mosque stands proud with two other landmarks of Kodungallur, also known as Muziris. The first is the Saint Thomas Church, also said to be among the first in India built by the Apostle himself around 52 AD. He had arrived here in India and the church has some holy relics from the olden days. The second is the Bhagavathy Temple of Cheran ruler Chenguttavan, also known as Vel Kelu Kuttuvan, around 150 AD.
cheraman juma masjid

In fact, in a manifestation of India's cultural syncretism, many non-Muslims are its devotees and hold "Vidhyarambham", or the commencement of education ceremony for their children at this mosque. During Ramadan, iftaar offerings are often made by the non-Muslim communities in the area.
There are several legends surrounding the Cheraman Jum'ah mosque. As one goes: It was built under the patronage of the last Chera king, Cheraman Perumal, who is also believed to have abdicated his throne and embraced Islam upon meeting the Prophet at Mecca.
But before he died at Dhufar in Oman due to some illness on the way back to India, he wrote some letters asking the local rulers, to whom he had handed over his empire, to extend all help they could to some Arab merchants who were planning to visit India.
One such merchant, Malik Ibn Dinar, was given permission by local chieftains to build Islamic places of worship around the area. The mosque accordingly is called the Cheraman Mosque in recognition of the help extended by the last Chera ruler.
This apart, Malik Ibn Dinar, who was also a "sahaba" or a companion of the Prophet, was the mosque's first Ghazi, succeeded by his nephew Habib Bin Malik. Both Habib Bin Malik and his wife are entombed at the Cheraman Juma Masjid.
The original mosque itself has undergone several renovations. The oral traditions have it that the first such refurbishment took place in the 11th century and again some 300 years later. In the modern era a revamp was done in 1974, after which a reconstruction happened in 2001.
cheraman juma masjid


But all along, the sanctum sanctorum has been preserved. Minarets and a dome are also modern-day additions. Yet, despite the renovations, a striking amalgam of different cultures and religions is in full play at the grand old mosque.
From some angles, it can even pass off as a temple.
At the centre of this striking blend of several architectural styles and practices is a traditional Kerala-style lamp hanging from the ceiling. This lamp also has inscriptions in old Malayalam script Vattezhuthu.
In true style of temples in the south, the mosque also has a pond. Then the minber, or the pulpit from where the Imam delivers sermons, has some intricate carvings and lacquer work, which is again unique to southern India.
The mosque also has a small museum. At the centre, inside a glass casing, is a miniature replica of the mosque as it stood around 350 years ago. There are also some other artefacts from the times gone by, such as the redstones that were used to as building material in sizes uncommon today, and an ancient sewage channel.

औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर अत्याचार (HOLOCAUST BY AURANGJEB)

औरँगजेब ने सम्राट बनते ही हिन्दुओं पर अत्याचार प्रारम्भ कर दिये। और सरकारी आदेश प्रसारित किया गया कि हिन्दुओं के मन्दिरों को शीघ्र धराशाही कर दिया जाये। :2 नवम्बर1665: ईस्वी को शाही फरमान द्वारा औरँगजेब ने हुक्म दिया कि अहमदाबाद और गुजरात के परगनों में उसके सिंहासन रूढ होने से पहले कई मन्दिर उसकी आज्ञा से तहस-नहस किये गए थे, उनका पुर्ननिर्माण कर लिया गया है और मूर्ति-पूजा पुनः शुरू हो गई है। अतः उसके पहले हुक्म की ही तामील हो।

आज्ञा मिलने की देर ही थी कि मन्दिर फिर से धड़ाधड़ गिराये जाने लगे मथुरा का केशवराय का प्रसिद्ध मन्दिर, बनारस का गोपीनाथ मन्दिर, उदयपुर के 235 मन्दिर, अम्बर के 66, जयपुर, उज्जैन, गोलकुँडा, विजयपुर और महाराष्ट्र के अनेकों मन्दिर गिरा दिये गए। मन्दिर तहस-नहस करने पर ही बस नहीं हुई। 1665 ही के एक अन्य फरमान द्वारा दिल्ली के हिन्दुओं को यमुना किनारे मृतकों का दाह-सँस्कार करने की भी मनाही कर दी गई। हिन्दुओं के धर्मिक रीति रिवाजों पर औरँगजेब का यह सीधा हमला था।
इसके साथ ही विशेष आदेश इस प्रकार जारी किये गये कि सभी हिन्दुओं को एक विशेषकर,टैक्स पुनः देना होगा। जिसे जज़िया कहते थे। कुछ नरेशों को छोड़कर सभी हिन्दुओं को घोड़ा अथवा हाथी की सवारी से वर्जित कर दिया गया। इस प्रकार के कुछ अन्य फरमान भी जारी किये गये जिससे हिन्दुओं के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचे। इन सभी बातों का तात्पर्य था कि हिन्दू लोग तँग आकर स्वयँ ही इस्लाम स्वीकार कर लें।
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तब हिन्दुओं की ओर से इस प्रकार के आदेशों से कई स्थानों पर विद्रोह हुए इनमें मध्य भारत के स्थान अधिक थे। सरकारी सेना ने विद्रोह कुचल डाले और हिन्दुओं का कचुमर निकाल दिया। परन्तु सेना को भी कुछ क्षति उठानी पड़ी। अतः औरँगजेब को अपनी नीति को लागू करने के लिए नई युक्तियों से काम लेने की सूझी और उसने कूटनीति का रास्ता अपनाया। सन् 1669-70 में उसने पूरी तरह मन बना लिया था कि इस्लाम के प्रचार के लिए एक ओर से सिलसिलेवार हाथ डाला जाए।
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उसने इस उद्देश्य के लिए कश्मीर को चुना। क्योंकि उन दिनों कश्मीर हिन्दू सभ्यता सँस्कृति का गढ़ था। वहाँ के पण्डित हिन्दू धर्म के विद्धानों के रूप में विख्यात थे। औरँगजेब ने सोचा कि यदि वे लोग इस्लाम धारण कर लें तो बाकी अनपढ़ व मूढ़ जनता को इस्लाम में लाना सहज हो जायेगा और ऐसे विद्वान, समय आने पर इस्लाम के प्रचार में सहायक बनेगे और जनसाधारण को दीन के दायरे में लाने का प्रयत्न करेंगे। अतः उसने इफ़तखार ख़ान को शेर अफगान का खिताव देकर कश्मीर भेज दिया और उसके स्थान पर लाहौर का राज्यपाल,गवर्नर फिदायर खान को नियुक्त किया।

रेज़ांगला युद्ध की अनसुनी वीरगाथा : जब दस दस चीनी सैनिको को निहत्थे मारा भारतीय जवानो ने


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भारत में कम ही लोग हैं जो 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध को याद करना पसंद करते हैं. वजह साफ है… 1962 के युद्ध के घाव इतने गहरे हैं कि कोई भी देशवासी उसको कुरेदना नहीं चाहता. यहां तक की भारतीय सेना भी उस युद्ध के बारे में ज्यादा बात करती नहीं दिखती. लेकिन ऐसा नहीं है कि 1962 युद्ध ने सिर्फ हमें घाव ही दिए हैं. उस युद्ध ने हमें ये भी सिखाया है कि विषम परिस्थितियों में भी भारतीय सैनिक बहादुरी से ना केवल लड़ना जानते हैं, अपनी जान तक देश की सीमाओं की रक्षा के लिए न्यौछावर नहीं करते हैं, बल्कि दुश्मन के दांत भी खट्टे करना जानते हैं.
1962 युद्ध के दौरान लद्दाख के रेज़ांग-ला में भारतीय सैनिकों ने चीनी सैनिकों से जो लड़ाई लड़ी थी उसे ना केवल भारतीय फौज बल्कि चीन के साथ-साथ दुनियाभर की सेनाएं भी एक मिसाल के तौर पर देखती हैं और सीख लेना नहीं भूलती.
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लद्दाख के चुशुल इलाके में करीब 16,000 फीट की उंचाई पर रेज़ांगला दर्रे के करीब भारतीय सेना ने अपनी एक पोस्ट तैयार की थी. इस पोस्ट की सुरक्षा की जिम्मेदारी दी गई थी कुमाऊं रेजीमेंट की एक कंपनी को जिसका नेतृत्व कर रहे थे मेजर शैतान सिंह (भाटी). 123 जवानों की इस कंपनी में अधिकतर हरियाणा के रेवाड़ी इलाके के अहीर (यादव) शामिल थे. चीनी सेना की बुरी नजर चुशुल पर लगी हुई थी. वो किसी भी हालत में चुशुल को अपने कब्जे में करना चाहते थे. जिसके मद्देनजर चीनी सैनिकों ने भी इस इलाके में डेरा डाल लिया था.
इसी क्रम में जब अक्टूबर 1962 में लद्दाख से लेकर नेफा (अरुणाचल प्रदेश) तक भारतीय सैनिकों के पांव उखड़ गए थे और चीनी सेना भारत की सीमा में घुस आई थी, तब रेज़ांग-ला में ही एक मात्र ऐसी लड़ाई लड़ी गई थी जहां भारतीय सैनिक चीन के पीएलए पर भारी पड़ी थी.
17 नवम्बर चीनी सेना ने रेज़ांग-ला में तैनात भारतीय सैनिकों पर जबरदस्त हमला बोल दिया. चीनी सैनिकों ने एक प्लान के तहत रेज़ांग-ला में तैनात सैनिकों को दो तरफ से घेर लिया, जिसके चलते भारतीय सैनिक अपने तोपों (आर्टिलेरी) का इस्तेमाल नहीं कर पाई. लेकिन .303 (थ्री-नॉट-थ्री) और ब्रैन-पिस्टल के जरिए भी कुमाऊं रेजीमेंट के ये 123 जवान चीनी सेना की तोप, मोर्टार और ऑटोमैटिक हथियारों जिनमें मशीन-गन भी शामिल थीं, मुकाबला कर रहे थे. इन जवानों ने अपनी बहादुरी से बड़ी तादाद में चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया. लेकिन चीनी सेना लगातार अपने सैनिकों की मदद के लिए रि-इनफोर्समेंट भेज रही थी.

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मेजर शैतान सिंह
मेजर शैतान सिंह खुद कंपनी की पांचों प्लाटून पर पहुंचकर अपने जवानों की हौसला-अफजाई कर रहे थे. इस बीच कुमाऊं कंपनी के लीडर मेजर शैतान सिंह गोलियां लगने से बुरी तरह जख्मी हो गए. दो जवान जब उन्हे उठाकर सुरक्षित स्थान पर ले जा रहे थे तो चीनी सैनिकों ने उन्हे देख लिया.
शैतान सिंह अपने जवानों की जान किसी भी कीमत पर जोखिम में नहीं डाल सकते थे. उन्होनें खुद को सुरक्षित स्थान पर ले जाना से साफ मना कर दिया. जख्मी हालत में शैतान सिंह अपने जवानों के बीच ही बने रहे. वहीं पर अपनी बंदूक को हाथ में लिए उनकी मौत हो गई.
दो दिनो तक भारतीय सैनिक चीनी पीएलए को रोके रहे. 18 नवम्बर को 123 में से 109 जवान जिनमें कंपनी कमांडर मेजर शैतान सिंह भी शामिल थे देश की रक्षा करते मौत को गले लगा चुके थे. लेकिन इसका नतीजा ये हुआ कि भारतीय सैनिकों की गोलियां तक खत्म हो गईं. बावजूद इसके बचे हुए जवानों ने चीन के सामने घुटने नहीं टेकें.
भारतीय गुप्तचर एजेंसी रॉ (रिसर्च एंड एनेलिसेस विंग) के पूर्व अधिकारी आर के यादव ने अपनी किताब ‘मिशन आर एंड डब्लू’ में रेज़ांगला की लड़ाई का वर्णन करते हुए लिखा है कि इन बचे हुए जवानों में से एक सिंहराम ने बिना किसी हथियार और गोलियों के चीनी सैनिकों को पकड़-पकड़कर मारना शुरु कर दिया. मल्ल-युद्ध में माहिर कुश्तीबाज सिंहराम ने एक-एक चीनी सैनिक को बाल से पकड़ा और पहाड़ी से टकरा-टकराकर मौत के घाट उतार दिया. इस तरह से उसने दस चीनी सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया.
गीतकार प्रदीप द्वारा लिखा गया देशप्रेम से ओतप्रोत गाना जिसे लता मंगेशकर ने गाकर अमर कर दिया था दरअसल वो रेज़ागला युद्ध को ध्यान में ही रखकर शायद रचा गया था.
गीत के बोल कुछ यूं हैं, “….थी खून से लथपथ काया, फिर भी बंदूक उठाके दस-दस को एक एक ने मारा, फिर गिर गये होश गंवा के. जब अंत समय आया तो कह गये के अब मरते हैं खुश रहना देश के प्यारों अब हम तो सफर करते हैं. क्या लोग थे वो दीवाने क्या लोग थे वे अभिमानी जो शहीद हुए हैं उनकी जरा याद करो कुर्बानी….”
बताते है कि चीन ने इस लड़ाई में पांच भारतीय जवानों को युद्धबंदी बना लिया था जबकि नौ जवान बुरी तरह घायल हो हुए थे.
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भारतीय सैनिकों की बहादुरी से हारकर चीनी सैनिकों ने अब पहाड़ से नीचे उतरने का साहस नहीं दिखाया. और चीन कभी भी चुशुल में कब्जा नहीं कर पाया. हरियाणा के रेवाड़ी स्थित इन अहीर जवानों की याद में बनाए गए स्मारक पर लिखा है कि चीन के 1700 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था. हालांकि इसमें कितनी सच्चाई है कोई नहीं जानता. क्योंकि इन लड़ाईयों में वीरगति को प्राप्त हुए जवानों की वीरगाथा सुनाने वाला कोई नहीं है. और चीन कभी भी अपने सेना को हुए नुकसान के बारे में नहीं बतायेगा. लेकिन इतना जरुर है कि चीनी सेना को रेज़ांगला में भारी नुकसान उठाना पड़ा.
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वीरगति को प्राप्त हुए मेजर शैतान सिंह को मरणोपरांत देश के सबसे बड़े पदक परमवीर चक्र से नवाजा गया. मेजर शैतान सिंह और उनके वीर अहीर जवानों की याद में चुशुल के करीब रेज़ांगला में एक युद्ध-स्मारक बनवाया गया. हर साल 18 नवम्बर को इन वीर सिपाहियों को पूरा देश और सेना याद करना नहीं भूलती है. क्योंकि “शहीदों की चितांओं पर लगेंगे हर बरस मेले…देश में मर-मिटने वालों का बस यही एक निशां होगा…”

कैलाश पर्वत: दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी पर्वत....अदिति गुप्ता (KAILASH MOUNTAIN)


पौराणिक कथाओं के अनुसार मानसरोवर के पास स्थित कैलाश पर्वत पर शिव-शंभु का धाम है। ‘परम रम्य गिरवरू कैलासू, सदा जहां शिव उमा निवासू।’ आप ये तो जानते होंगे की कैलाश पर्वत पर भगवान शिव अपने परिवार के साथ रहते हैं पर ये नहीं जानते होंगे की वह इस दुनिया का सबसे बड़ा रहस्यमयी पर्वत है जो की माना जाता है की अप्राकृतिक शक्तियों का भण्डार है। आइए जानें कैसे..
एक्सिस मुंडी को ब्रह्मांड का केंद्र या दुनिया की नाभि के रूप में समझें। यह आकाश और पृथ्वी के बीच संबंध का एक बिंदु है जहाँ चारों दिशाएं मिल जाती हैं। और यह नाम, असली और महान, दुनिया के सबसे पवित्र और सबसे रहस्यमय पहाड़ों में से एक कैलाश पर्वत से सम्बंधित हैं। एक्सिस मुंडी वह स्थान है अलौकिक शक्ति का प्रवाह होता है और आप उन शक्तियों के साथ संपर्क कर सकते हैं रूसिया के वैज्ञानिक ने वह स्थान कैलाश पर्वत बताया है।
इस पवित्र पर्वत की ऊंचाई 6714 मीटर है। और यह पास की हिमालय सीमा की चोटियों जैसे माउन्ट एवरेस्ट के साथ रेस तो नहीं लगा सकता पर इसकी भव्यता ऊंचाई में नहीं, लेकिन उसके आकार में है। उसकी छोटी की आकृति विराट शिवलिंग की तरह है। जिस पर सालभर बर्फ की सफेद चादर लिपटी रहती है। कैलाश पर्वत पर चढना निषिद्ध है पर 11 सदी में एक तिब्बती बौद्ध योगी मिलारेपा ने इस पर चढाई की थी।
कैलाश पर्वत चार महान नदियों के स्त्रोतों से घिरा है सिंध, ब्रह्मपुत्र, सतलज और कर्णाली या घाघरा तथा दो सरोवर इसके आधार हैं पहला मानसरोवर जो दुनिया की शुद्ध पानी की उच्चतम झीलों में से एक है और जिसका आकर सूर्य के सामान है तथा राक्षस झील जो दुनिया की खारे पानी की उच्चतम झीलों में से एक है और जिसका आकार चन्द्र के सामान है।

कैलाश पर्वत और उसके आस पास के बातावरण पर अध्यन कर रहे वैज्ञानिक ज़ार निकोलाइ रोमनोव और उनकी टीम ने तिब्बत के मंदिरों में धर्मं गुरुओं से मुलाकात की उन्होंने बताया कैलाश पर्वत के चारों ओर एक अलौकिक शक्ति का प्रवाह होता है जिसमे तपस्वी आज भी आध्यात्मिक गुरुओं के साथ टेलिपेथी संपर्क करते है।
पुराणों के अनुसार यहाँ शिवजी का स्थायी निवास होने के कारण इस स्थान को 12 ज्येतिर्लिंगों में सर्वश्रेष्ठ माना गया है। कैलाश बर्फ़ से सटे 22,028 फुट ऊँचे शिखर और उससे लगे मानसरोवर को ‘कैलाश मानसरोवर तीर्थ’ कहते है और इस प्रदेश को मानस खंड कहते हैं। कैलाश-मानसरोवर उतना ही प्राचीन है, जितनी प्राचीन हमारी सृष्टि है। इस अलौकिक जगह पर प्रकाश तरंगों और ध्वनि तरंगों का समागम होता है, जो ‘ॐ’ की प्रतिध्वनि करता है।
पांडवों के दिग्विजय प्रयास के समय अर्जुन ने इस प्रदेश पर विजय प्राप्त किया था। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में इस प्रदेश के राजा ने उत्तम घोड़े, सोना, रत्न और याक के पूँछ के बने काले और सफेद चामर भेंट किए थे। इस प्रदेश की यात्रा व्यास, भीम, कृष्ण, दत्तात्रेय आदि ने की थी। इनके अतिरिक्त अन्य अनेक ऋषि मुनियों के यहाँ निवास करने का उल्लेख प्राप्त होता है। कुछ लोगों का कहना है कि आदि शंकराचार्य ने इसी के आसपास कहीं अपना शरीर त्याग किया था।
गर्मी के दिनों में जब मानसरोवर की बर्फ़ पिघलती है, तो एक प्रकार की आवाज़ भी सुनाई देती है। श्रद्धालु मानते हैं कि यह मृदंग की आवाज़ है। मान्यता यह भी है कि कोई व्यक्ति मानसरोवर में एक बार डुबकी लगा ले, तो वह ‘रुद्रलोक’ पहुंच सकता है। कैलाश पर्वत, जो स्वर्ग है जिस पर कैलाशपति सदाशिव विराजे हैं, नीचे मृत्यलोक है, इसकी बाहरी परिधि 52 किमी है।
मानसरोवर पहाड़ों से घिरी झील है, जो पुराणों में ‘क्षीर सागर’ के नाम से वर्णित है। क्षीर सागर कैलाश से 40 किमी की दूरी पर है व इसी में शेष शैय्या पर विष्णु व लक्ष्मी विराजित हो पूरे संसार को संचालित कर रहे है।

कैलाश-पर्वत के दर्शन करते समय जो अनुभव होता है वह शब्दों में कहना कठिन है।
धवल-हिम से ढके कैलाश के चरण-स्पर्श करते समय मन अलौकिक भाव से भर जाता है।
दिव्य शांति मन को तृप्त कर देती है। वाणी स्वतः शांत हो जाती है। हम किसी शक्ति का अनुभव करते हैं।
कैलाश की परिक्रमा करते समय डेरापुख से कैलाश के चरण-स्पर्श करने के लिए कठिन चढ़ाई करनी पड़ती है। कोई रास्ता नहीं है। कभी मोटे पत्थरो और चट्टानो पर तो कभी ग्लेशियर पर चलते हुए ढ़लानो पर फिसलने का डर भरे हुए चले जाते हैं पर चरण-स्पर्श पर पहुँच कर सब भूल जाते हैं।

Tuesday 21 July 2015

भारतीय इतिहास के दस 10 महानतम शासक (GREAT RULERS OF INDIA)

10. पृथ्वीराज चौहान

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मोहम्मद गौरी की चित्ररेखा नामक एक दरबारी गायिका  रूपवान एवं सुन्दर स्त्री थी।  वह संगीत एवं गान विद्या में निपुण, वीणा वादक, मधुर भाषिणी और बत्तीस गुण लक्षण बहुत सुन्दर नारी थी।  शाहबुदीन गौरी का एक कुटुम्बी भाई था ‘‘मीर हुसैन’’ वह शब्दभेदी बाण चलाने वाला, वचनों का पक्का और संगीत का प्रेमी तथा तलवार का धनी था।  चित्ररेखा गौरी को बहुत प्रिय थी, किन्तु वह मीर हुसैन को अपना दिल दे चुकी थी और हुसैन भी उस पर मंत्र-मुग्ध था।  इस कारण गौरी और हुसैन में अनबन हो गई।  गौरी ने हुसैन को कहलवाया कि ‘‘चित्ररेखा तेरे लिये कालस्वरूप है, यदि तुम इससे अलग नहीं रहे तो इसके परिणाम भुगतने होंगें।’’  इसका हुसैन पर कोई प्रभाव नहीं हुआ और वह अनवरत चित्ररेखा से मिलता रहा।  इस पर गौरी क्रोधित हुआ और हुसैन को कहलवाया कि वह अपनी जीवन चाहता है तो यह देश छोड़ कर चला जाए, अन्यथा उसे मार दिया जाएगा।  इस बात पर हुसैन ने अपी स्त्री, पुत्र आदि एवं चित्ररेखा के साथ अफगानिस्तान को त्यागकर पृथ्वीराज की शरण ली, उस समय पृथ्वीराज नागौर में थे।  शरणागत का हाथ पकड़कर सहारा और सुरक्षा देकर पृथ्वी पर धर्म-ध्वजा फहराना हर क्षत्रिय का धर्म होता है।  इधर मोहम्मद गौरी ने अपने शिपह-सालार आरिफ खां को मीर हुसैन को मनाकर वापस स्वदेश लाने के लिए भेजा, किन्तु हुसैन ने आरिफ को स्वदेश लौटने से मना कर दिया। इस प्रकार पृथ्वीराज द्वारा मीर हुसैन को शरण दिये जाने के कारण मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज के बीच दुश्मनी हो गई।
पृथ्वीराज चौहान और मोहम्मद गौरी के बीच 18 बार युद्ध हुआ, जिसमें पृथ्वीराज ने मोहम्मद गौरी को 17 बार परास्त किया।  जब-जब भी मोहम्मद गौरी परास्त होता, उससे पृथ्वीराज द्वारा दण्ड-स्वरूप हाथी, घोड़े लेकर छोड़ दिया जाता ।  मोहम्मद गौरी द्वारा 15वीं बार किये गए हमले में पृथ्वीराज की ओर से पजवनराय कछवाहा लड़े थे तथा उनकी विजय हुई।  गौरी ने दण्ड स्वरूप 1000 घोड़ और 15 हाथी देकर अपनी जान बचाई।  कैदखाने में पृथ्वीराज ने गौरी को कहा कि ‘‘आप बादशाह कहलाते हैं और बार-बार प्रोढ़ा की भांति मान-मर्दन करवाकर घर लौटते हो।  आपने कुरान शरीफ और करीम के कर्म को भी छोड़ दिया है, किन्तु हम अपने क्षात्र धर्म के अनुसार प्रतिज्ञा का पालन करने को प्रतिबद्ध हैं।  आपने कछवाहों के सामने रणक्षेत्र में मुंह मोड़कर नीचा देखा है।’’  इस प्रकार पृथ्वीराज चौहान ने उदारवादी विचारधारा का परिचय देते हुए गौरी को 17 बार क्षमादान दिया। चंद्रवरदाई  कवि पृथ्वीराज के यश का बखान करते हुए कहते हैं कि ‘‘हिन्दु धर्म और उसकी परम्परा कितनी उदार है।’’
18वीं बार मोहम्मद गौरी ने और अधिक सैन्य बल के साथ पृथ्वीराज चौहान के राज्य पर हमला किया, तब पृथ्वीराज ने संयोगिता से विवाह किया ही था, इसलिए अधिकतर समय वे संयोगिता के साथ महलों में ही गुजारते थे।  उस समय पृथ्वीराज को गौरी की अधिक सशक्त सैन्य शक्ति का अंदाज नहीं था, उन्होंने सोचा पहले कितने ही युद्धों में गौरी को मुंह की खानी पड़ी है, इसलिए इस बार भी उनकी सेना गौरी से मुकाबला कर विजयश्री हासिल कर लेगी।  परन्तु गौरी की अपार सैन्य शक्ति एवं पृथ्वीराज की अदूरदर्शिता के कारण गौरी की सेना ने पृथ्वीराज के अधिकतर सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया और कई सैनिकों को जख्मी कर दिल्ली महल पर अपना कब्जा जमा कर पृथ्वीराज को बंदी बना दिया। गौरी द्वारा पृथ्वीराज को बंदी बनाकर अफगानिस्तान ले जाया गया और उनके साथ घोर अभद्रतापूर्ण व्यवहार किया गया।  गौरी ने यातनास्वरूप पृथ्वीराज की आँखे निकलवा ली और ढ़ाई मन वजनी लोहे की बेड़ियों में जकड़कर एक घायल शेर की भांति कैद में डलवा दिया।  इसके परिणाम स्वरूप दिल्ली में मुस्लिम शासन की स्थापना हुई और हजारों क्षत्राणियों ने पृथ्वीराज की रानियों के साथ अपनी मान-मर्यादा की रक्षा हेतु चितारोहण कर अपने प्राण त्याग दिये।
इधर पृथ्वीराज का राजकवि चन्दबरदाई पृथ्वीराज से मिलने के लिए काबुल पहुंचा। वहां पर कैद खाने में पृथ्वीराज की दयनीय हालत देखकर चंद्रवरदाई  के हृदय को गहरा आघात लगा और उसने गौरी से बदला लेने की योजना बनाई। चंद्रवरदाई  ने गौरी को बताया कि हमारे राजा एक प्रतापी सम्राट हैं और इन्हें शब्दभेदी बाण (आवाज की दिशा में लक्ष्य को भेदनाद्ध चलाने में पारंगत हैं, यदि आप चाहें तो इनके शब्दभेदी बाण से लोहे के सात तवे बेधने का प्रदर्शन आप स्वयं भी देख सकते हैं। इस पर गौरी तैयार हो गया और उसके राज्य में सभी प्रमुख ओहदेदारों को इस कार्यक्रम को देखने हेतु आमंत्रित किया। पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई  ने पहले ही इस पूरे कार्यक्रम की गुप्त मंत्रणा कर ली थी कि उन्हें क्या करना है।  निश्चित तिथि को दरबार लगा और गौरी एक ऊंचे स्थान पर अपने मंत्रियों के साथ बैठ गया। चंद्रवरदाई  के निर्देशानुसार लोहे के सात बड़े-बड़े तवे निश्चित दिशा और दूरी पर लगवाए गए।  चूँकि पृथ्वीराज की आँखे निकाल दी गई थी और वे अंधे थे, अतः उनको कैद एवं बेड़ियों से आजाद कर बैठने के निश्चित स्थान पर लाया गया और उनके हाथों में धनुष बाण थमाया गया।  इसके बाद चंद्रवरदाई  ने पृथ्वीराज के वीर गाथाओं का गुणगान करते हुए बिरूदावली गाई तथा गौरी के बैठने के स्थान को इस प्रकार चिन्हित कर पृथ्वीराज को अवगत करवाया:-
‘‘चार बांस, चैबीस गज, अंगुल अष्ठ प्रमाण।
ता  ऊपर  सुल्तान है,  चूके मत  चौहान।।’’
अर्थात् चार बांस, चैबीस गज और आठ अंगुल जितनी दूरी के ऊपर सुल्तान बैठा है, इसलिए चौहान चूकना नहीं, अपने लक्ष्य को हासिल करो।
इस संदेश से पृथ्वीराज को गौरी की वास्तविक स्थिति का आंकलन हो गया।  तब चंद्रवरदाई  ने गौरी से कहा कि पृथ्वीराज आपके बंदी हैं, इसलिए आप इन्हें आदेश दें, तब ही यह आपकी आज्ञा प्राप्त कर अपने शब्द भेदी बाण का प्रदर्शन करेंगे।  इस पर ज्यों ही गौरी ने पृथ्वीराज को प्रदर्शन की आज्ञा का आदेश दिया, पृथ्वीराज को गौरी की दिशा मालूम हो गई और उन्होंने तुरन्त बिना एक पल की भी देरी किये अपने एक ही बाण से गौरी को मार गिराया।  गौरी उपर्युक्त कथित ऊंचाई से नीचे गिरा और उसके प्राण पंखेरू उड़ गए। चारों और भगदड़ और हा-हाकार मच गया, इस बीच पृथ्वीराज और चंद्रवरदाई  ने पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार एक-दूसरे को कटार मार कर अपने प्राण त्याग दिये। आज भी पृथ्वीराज चौहान और चंद्रवरदाई  की अस्थियां एक समाधी के रूप में  काबुल में विद्यमान हैं।  इस प्रकार भारत के अन्तिम हिन्दू प्रतापी सम्राट का 1192 में अन्त हो गया और हिन्दुस्तान में मुस्लिम साम्राज्य की नींव पड़ी। चंद्रवरदाई  और पृथ्वीराज के जीवन के साथ ऐसा मिला हुआ था कि अलग नहीं किया जा सकता। इस प्रकार चंद बरदाई की सहायता से से पृथ्वीराज के द्वारा गोरी का वध कर दिया गया। अपने महान राजा पृथ्वीराज चौहान के सम्मान में रचित पृथ्वीराज रासो हिंदी भाषा का पहला प्रामाणिक काव्य माना जाता है। अंततोगत्वा पृथ्वीराज चौहान एक पराजित विजेता कहा जाना अतिशयोक्ति न होगा।

9. रणजीत सिंह

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महाराजा रणजीत सिंह (१७८०-१८३९) सिख साम्राज्य के राजा थे। वे शेर-ए पंजाब के नाम से प्रसिद्ध हैं। महाराजा रणजीत एक ऐसी व्यक्ति थे, जिन्होंने न केवल पंजाब को एक सशक्त सूबे के रूप में एकजुट रखा, बल्कि अपने जीते-जी अंग्रेजों को अपने साम्राज्य के पास भी नहीं फटकने दिया।
रणजीत सिंह का जन्म सन 1780 में गुजरांवाला (अब पाकिस्तान) में हुआ था। उन दिनों पंजाब पर सिखों और अफगानों का राज चलता था जिन्होंने पूरे इलाके को कई मिसलों में बांट रखा था। रणजीत के पिता महा सिंह सुकरचकिया मिसल के कमांडर थे। पश्चिमी पंजाब में स्थित इस इलाके का मुख्यालय गुजरांवाला में था। छोटी सी उम्र में चेचक की वजह से महाराजा रणजीत सिंह की एक आंख की रोशनी जाती रही। महज 12 वर्ष के थे जब पिता चल बसे और राजपाट का सारा बोझ इन्हीं के कंधों पर आ गया।
12 अप्रैल 1801 को रणजीत ने महाराजा की उपाधि ग्रहण की। गुरु नानक के एक वंशज ने उनकी ताजपोशी संपन्न कराई। उन्होंने लाहौर को अपनी राजधानी बनाया और सन 1802 में अमृतसर की ओर रूख किया।
महाराजा रणजीत ने अफगानों के खिलाफ कई लड़ाइयां लड़ीं और उन्हें पश्चिमी पंजाब की ओर खदेड़ दिया। अब पेशावर समेत पश्तून क्षेत्र पर उन्हीं का अधिकार हो गया। यह पहला मौका था जब पश्तूनों पर किसी गैर मुस्लिम ने राज किया। उसके बाद उन्होंने पेशावर, जम्मू कश्मीर और आनंदपुर पर भी अधिकार कर लिया।
पहली आधुनिक भारतीय सेना – “सिख खालसा सेना” गठित करने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। उनकी सरपरस्ती में पंजाब अब बहुत शक्तिशाली सूबा था। इसी ताकतवर सेना ने लंबे अर्से तक ब्रिटेन को पंजाब हड़पने से रोके रखा। एक ऐसा मौका भी आया जब पंजाब ही एकमात्र ऐसा सूबा था, जिस पर अंग्रेजों का कब्जा नहीं था।
ब्रिटिश इतिहासकार जे टी व्हीलर के मुताबिक, अगर वह एक पीढ़ी पुराने होते, तो पूरे हिंदूस्तान को ही फतह कर लेते। महाराजा रणजीत खुद अनपढ़ थे, लेकिन उन्होंने अपने राज्य में शिक्षा और कला को बहुत प्रोत्साहन दिया।
उन्होंने पंजाब में कानून एवं व्यवस्था कायम की और कभी भी किसी को सजा ए मौत नहीं दी। उनका सूबा धर्मनिरपेक्ष था उन्होंने हिंदुओं और सिखों से वसूले जाने वाले जजिया पर भी रोक लगाई। कभी भी किसी को सिख धर्म अपनाने के लिए विवश नहीं किया। उन्होंने अमृतसर के हरमिंदर साहिब गुरूद्वारे में संगमरमर लगवाया और सोना मढ़वाया, तभी से उसे स्वर्ण मंदिर कहा जाने लगा।
बेशकीमती हीरा कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के खजाने की रौनक था। सन 1839 में महाराजा रणजीत का निधन हो गया। उनकी समाधि लाहौर में बनवाई गई, जो आज भी वहां कायम है। उनकी मौत के साथ ही अंग्रेजों का पंजाब पर शिकंजा कसना शुरू हो गया। अंग्रेज-सिख युद्ध के बाद 30 मार्च 1849 में पंजाब ब्रिटिश साम्राज्य का अंग बना लिया गया और कोहिनूर महारानी विक्टोरिया के हुजूर में पेश कर दिया गया।
बात सन् 1812 की है। पंजाब पर महाराजा रणजीत सिंह का एकछत्र राज्य था। उस समय महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर के सूबेदार अतामोहम्मद के शिकंजे से कश्मीर को मुक्त कराने का अभियान शुरू किया था। इस अभियान से भयभीत होकर अतामोहम्मद कश्मीर छोड़कर भाग गया। कश्मीर अभियान के पीछे एक अन्य कारण भी था। अतामोहम्मद ने महमूद शाह द्वारा पराजित शाहशुजा को शेरगढ़ के किले में कैद कर रखा था। उसे कैदखाने से मुक्त कराने के लिए उसकी बेगम वफा बेगम ने लाहौर आकर महाराजा रणजीत सिंह से प्रार्थना की और कहा कि मेहरबानी कर आप मेरे पति को अतामोहम्मद की कैद से रिहा करवा दें, इस अहसान के बदले बेशकीमती कोहिनूर हीरा आपको भेंट कर दूंगी। शाहशुजा के कैद हो जाने के बाद वफा बेगम ही उन दिनों अफगानिस्तान की शासिका थी। इसी कोहिनूर को हड़पने के लालच में भारत पर आक्रमण करने वाले अहमद शाह अब्दाली के पौत्र जमान शाह को स्वयं उसी के भाई महमूद शाह ने कैदखाने में भयंकर यातनाएं देकर उसकी आंखें निकलवा ली थीं।
जमान शाह अहमद शाह अब्दाली के बेटे तैमूर शाह का बेटा था, जिसका भाई था महमूद शाह। अस्तु, महाराजा रणजीति सिंह स्वयं चाहते थे कि वे कश्मीर को अतामोहम्मद से मुक्त करवाएं। अत: सुयोग आने पर महाराजा रणजीत सिंह ने कश्मीर को आजाद करा लिया। उनके दीवान मोहकमचंद ने शेरगढ़ के किले को घेर कर वफा बेगम के पति शाहशुजा को रिहा कर वफा बेगम के पास लाहौर पहुंचा दिया। राजकुमार खड्गसिंह ने उन्हें मुबारक हवेली में ठहराया। पर वफा बेगम अपने वादे के अनुसार कोहिनूर हीरा महाराजा रणजीत सिंह को भेंट करने में विलम्ब करती रही। यहां तक कि कई महीने बीत गए। जब महाराजा ने शाहशुजा से कोहिनूर हीरे के बारे में पूछा तो वह और उसकी बेगम दोनों ही बहाने बनाने लगे। जब ज्यादा जोर दिया गया तो उन्होंने एक नकली हीरा महाराजा रणजीत सिंह को सौंप दिया, जो जौहरियों के परीक्षण की कसौटी पर नकली साबित हुआ। रणजीत सिंह क्रोध से भर उठे और मुबारक हवेली घेर ली गई। दो दिन तक वहां खाना नहीं दिया गया। वर्ष 1813 की पहली जून थी जब महाराजा रणजीत सिंह शाहशुजा के पास आए और फिर कोहिनूर के विषय में पूछा। धूर्त शाहशुजा ने कोहिनूर अपनी पगड़ी में छिपा रखा था। किसी तरह महाराजा को इसका पता चल गया। अत: उन्होंने शाहशुजा को काबुल की राजगद्दी दिलाने के लिए “गुरुग्रंथ साहब” पर हाथ रखकर प्रतिज्ञा की। फिर उसे “पगड़ी-बदल भाई” बनाने के लिए उससे पगड़ी बदल कर कोहिनूर प्राप्त कर लिया। पर्दे की ओट में बैठी वफा बेगम महाराजा की चतुराई समझ गईं। अब कोहिनूर महाराजा रणजीत सिंह के पास पहुंच गया था और वे संतुष्ट थे कि उन्होंने कश्मीर को आजाद करा लिया था। उनकी इच्छा थी कि वे कोहिनूर हीरे को जगन्नाथपुरी के मंदिर में प्रतिष्ठित भगवान जगन्नाथ को अर्पित करें। हिन्दू मंदिरों को मनों सोना भेंट करने के लिए वे प्रसिद्ध थे। काशी के विश्वनाथ मंदिर में भी उन्होंने अकूत सोना अर्पित किया था। परंतु जगन्नाथ भगवान (पुरी) तक पहुंचने की उनकी इच्छा कोषाध्यक्ष बेलीराम की कुनीति के कारण पूरी न हो सकी।
महाराजा रणजीत सिंह की मृत्यु के पश्चात् अंग्रेजों ने सन् 1845 में सिखों पर आक्रमण कर दिया। फिरोजपुर क्षेत्र में सिख सेना वीरतापूर्वक अंग्रेजों का मुकाबला कर रही थी। किन्तु सिख सेना के ही सेनापति लालसिंह ने विश्वासघात किया और मोर्चा छोड़कर लाहौर पलायन कर गया। इस कारण विजय के निकट पहुंचकर भी सिख सेना हार गई। अंग्रेजों ने सिखों से कोहिनूर हीरा ले लिया। साथ ही कश्मीर और हजारा भी सिखों से छीन लिए क्योंकि अंग्रेजों ने डेढ़ करोड़ रुपए का जुर्माना सिखों पर किया था, अर्थाभाव-ग्रस्त सिख किसी तरह केवल 50 लाख रुपए ही दे पाए थे। लार्ड हार्डिंग ने इंग्लैण्ड की रानी विक्टोरिया को खुश करने के लिए कोहिनूर हीरा लंदन पहुंचा दिया, जो “ईस्ट इंडिया कम्पनी” द्वारा रानी विक्टोरिया को सौंप दिया गया। उन दिनों महाराजा रणजीत सिंह के पुत्र दिलीप सिंह वहीं थे। कुछ लोगों का कथन है कि दिलीप सिंह से ही अंग्रेजों ने लंदन में कोहिनूर हड़पा था। कोहिनूर को 1 माह 8 दिन तक जौहरियों ने तराशा और फिर उसे रानी विक्टोरिया ने अपने ताज में जड़वा लिया।

8. समुद्रगुप्त

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समुद्रगुप्त को भारत का नेपोलियन कहा जाता है । वैसे अगर नेपोलियन को फ़्रांस का समुद्रगुप्त कहा जाए तो अधिक सार्थक है.. वह अपनी जिंदगी में कभी भी पराजित नही हुआ । उसका विजय अभियान भारत के हर क्षेत्र में कामयाब रहा । प्रथम आर्यावर्त के युद्ध में उसने तीन राजाओं को हराकर अपने विजय अभियान की शुरुआत की । इसके बाद दक्षिणापथ के युद्ध में दक्षिण के बारह राजाओं को पराजित कर उन्हें अभयदान दिया । यह उसकी दूरदर्शी निति का ही परिणाम था ,वह दक्षिण के भौगोलिक परिस्थितियों को भलीभांति समझता था । आर्यावर्त के द्वितीय युद्ध में उसने नौ राजाओं को हरा कर उन्हें अपने साम्राज्य में मिला लिया । बाद में उसने सीमावर्ती राजाओं और कई विदेशी शक्तियों को भी पराजित कर अपनी शक्ति का लोहा मानने पर मज़बूर कर दिया।
समुद्रगुप्त ही गुप्त वंश का वास्तविक निर्माता था । उसका प्रधान सचिव हरिसेन ने प्रयाग प्रशस्ति की रचना की जिसमे समुद्रगुप्त के विजयों के बारें में विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है । समुद्रगुप्त ने अश्वमेघ यज्ञ भी करवाया । वह वीणा बजाने में भी कुशल था । उसके दरबार में बुधघोष जैसे विद्वान् आश्रय पाते थे । समुद्रगुप्त गुप्त राजवंश से संबंधित चंद्रगुप्त के उत्तराधिकारी थे और उस राजवंश के महानतम राजा थे। समुद्रगुप्त को भारत के स्वर्ण युग का शुरुआत  की करने के लिए जाना जाता है। उन्हें एक महान योद्धा, कला के पारखी और एक उदार शासक के लिए आज भी याद किया जाता है।

7. महाराणा प्रताप

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इतिहास पुरुष महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 को उदयपुर, मेवाड के कुम्भलगढ दुर्ग में हुआ था। वह सिसौदिया राजवंश में जन्में थे। उनकी ‘मां’ का नाम जैवन्ताबाई था, जो पाली के सोनगरा अखैराज की पुत्री थीं।
महाराणा प्रताप को बचपन में ‘कीका’ के नाम से पुकारा जाता था। महाराणा प्रताप का राज्याभिषेक गोगुन्दा में हुआ। महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल 11 शादियां की थीं।
महाराणा प्रताप द्वितीय बुद्धिमत्ता एवं वीरता की मिसाल हैं। महाराणा प्रताप के सबसे प्रिय और प्रसिद्ध नीलवर्ण अरबी मूल के घोड़े का नाम चेतक था। हल्दी घाटी (1576) के युद्ध में उनके प्रिय घोड़े चेतक ने अहम भूमिका निभाई, इसके लिए उसे आज भी याद किया जाता है।
  • वर्तमान में चित्तौड़ की हल्दी घाटी में चेतक की समाधि बनी हुई है, जहां स्वयं प्रताप और उनके भाई शक्तिसिंह ने अपने हाथों से इस अश्व का दाह-संस्कार किया था।
  • महाराणा प्रताप के भाले का वजन 80 किलो और कवच का वजन भी 80 किलो था।
  • महाराणा प्रताप की तलवार कवच आदि सामान उदयपुर राज घराने के संग्रहालय में सुरक्षित हैं।
  • महाराणा प्रताप के घोड़े चेतक का मंदिर भी बना जो आज हल्दी घटी में सुरक्षित है।
  • महाराणा प्रताप का घोडा चेतक महाराणा को 26 फीट का खाई पार करने के बाद वीर गति को प्राप्त हुआ। उसकी एक टांग टूटने के बाद भी वो खाई पार कर गया।
  • मेवाड़ राजघराने के वारिस को एकलिंग जी भगवन का दीवान माना जाता है।
  • छत्रपति शिवाजी भी मूल रूप से मेवाड़ से थे वीर शिवाजी के पर दादा उदैपुर महाराणा के छोटे भाई थे।
  • महाराणा प्रताप की मृत्यु 29 जनवरी 1597 हुई। ऐसे वीर को सदियों को भारतवर्ष शत शत नमन करता रहेगा। 

    6. शिवाजी

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    शिवाजी भोसले मराठा साम्राज्य के महानतम राजा व संस्थापक थे।  भोंसले मराठा वंश से जयजयकार, वह अपनी राजधानी के रूप में रायगढ़ के साथ एक स्वतंत्र मराठा साम्राज्य बनाया। उन्हें बीजापुर के आदिलशाही सल्तनत और मुगल साम्राज्य के खिलाफ संघर्ष में अग्रणी होने के लिए छत्रपति के रूप में ताज पहनाया गया था। वह एक महान योद्धा और मुगलों के खिलाफ भारत के सबसे एकजुट नायक के रूप में याद किया जाता है।
    कुछ चुनिन्दा लोगो का एक दल बनाकर उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में ही पूना के निकट तीरण के दुर्ग पर अधिकार जमा लिया था ..
    1. एक बार शिवाजी की सेना के एक सैनिक ने एक मुगल किलेदार की एक जवान और अति सुंदर युवती को उसके घर से उठा लिया और उसकी सुंदरता पर मुग्ध होकर उसने उसे शिवाजी के समक्ष पेश करने की ठानी. वह उस युवती को बिठाकर शिवाजी के पास ले गया.
    जब शिवाजी ने उस युवती को देखा तो वह उसकी सुंदरता की तारीफ किए बिना नहीं रह सके लेकिन उन्होंने उस युवती की तारीफ में जो कहा वह कुछ इस तरह से था काश! हमारी माता भी इतनी खूबसूरत होतीं तो मैं भी खूबसूरत होता.

    इसके बाद वीर शिवाजी ने अपने सेनापति को डांटते हुए कहा कि वह इस युवती को जल्द से जल्द उसके घर ससम्मान छोड़ आएं. साथ ही उन्होंने यह भी साफ कर दिया कि वह दूसरे की बहू-बेटियों को अपनी माता की तरह मानते हैं.

    2. शिवाजी के साहस का एक और किस्सा प्रसिद्द है . तब पुणे के करीब नचनी गाँव में एक भयानक चीते का आतंक छाया हुआ था . वह अचानक ही कहीं से हमला करता था और जंगल में ओझल हो जाता. डरे हुए गाँव वाले अपनी समस्या लेकर शिवाजी के पास पहुंचे .
    ” हमें उस भयानक चीते से बचाइए . वह ना जाने कितने बच्चों को मार चुका है , ज्यादातर वह तब हमला करता है जब हम सब सो रहे होते हैं.”
    शिवाजी ने धैर्यपूर्वक ग्रामीणों को सुना , ” आप लोग चिंता मत करिए , मैं यहाँ आपकी मदद करने के लिए ही हूँ .”
    शिवाजी अपने सिपाहियों यसजी और कुछ सैनिकों के साथ जंगल में चीते को मारने के लिए निकल पड़े . बहुत ढूँढने के बाद जैसे ही वह सामने आया , सैनिक डर कर पीछे हट गए , पर शिवाजी और यसजी बिना डरे उसपर टूट पड़े और पलक झपकते ही उस मार गिराया. गाँव वाले खुश हो गए और “जय शिवाजी ” के नारे लगाने लगे.
    3. शिवाजी के पिता का नाम शाहजी था . वह अक्सर युद्ध लड़ने के लिए घर से दूर रहते थे. इसलिए उन्हें शिवाजी के निडर और पराक्रमी होने का अधिक ज्ञान नहीं था. किसी अवसर पर वह शिवाजी को बीजापुर के सुलतान के दरबार में ले गए . शाहजी ने तीन बार झुककर सुलतान को सलाम किया, और शिवाजी से भी ऐसा ही करने को कहा . लेकिन , शिवाजी अपना सर ऊपर उठाये सीधे खड़े रहे . विदेशी शासक के सामने वह किसी भी कीमत पर सर झुकाने को तैयार नहीं हुए. और शेर की तरह शान से चलते हुए दरबार से वापस चले गए.
  • 5. कृष्णदेव राय
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    एक के बाद एक लगातार हमले कर विदेशी मुस्लिमों ने भारत के उत्तर में अपनी जड़ें जमा ली थीं. अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक काफूर को एक बड़ी सेना देकर दक्षिण भारत जीतने के लिये भेजा.1306 से 1315 ईसवी तक इसने दक्षिण में भारी विनाश किया. ऐसी विकट परिस्थिति में हरिहर और बुक्का राय नामक दो वीर भाइयों ने 1336 में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की.
    इन दोनों को बलात् मुसलमान बना लिया गया था; पर माधवाचार्य ने इन्हें वापस हिन्दू धर्म में लाकर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करायी. लगातार युद्धरत रहने के बाद भी यह राज्य विश्व के सर्वाधिक धनी और शक्तिशाली राज्यों में गिना जाता था. इस राज्य के सबसे प्रतापी राजा हुए कृष्णदेव राय. उनका राज्याभिषेक 8 अगस्त, 1509 को हुआ था.
    महाराजा कृष्णदेव राय हिन्दू परम्परा का पोषण करने वाले लोकप्रिय सम्राट थे. उन्होंने अपने राज्य में हिन्दू एकता को बढ़ावा दिया. वे स्वयं वैष्णव पन्थ को मानते थे; पर उनके राज्य में सब पन्थों के विद्वानों का आदर होता था. सबको अपने मत के अनुसार पूजा करने की छूट थी. उनके काल में भ्रमण करने आये विदेशी यात्रियों ने अपने वृत्तान्तों में विजयनगर साम्राज्य की भरपूर प्रशंसा की है. इनमें पुर्तगाली यात्री डोमिंगेज पेइज प्रमुख है.
    महाराजा कृष्णदेव राय ने अपने राज्य में आन्तरिक सुधारों को बढ़ावा दिया. शासन व्यवस्था को सुदृढ़ बनाकर तथा राजस्व व्यवस्था में सुधार कर उन्होंने राज्य को आर्थिक दृष्टि से सबल और समर्थ बनाया. विदेशी और विधर्मी हमलावरों का संकट राज्य पर सदा बना रहता था, अतः उन्होंने एक विशाल और तीव्रगामी सेना का निर्माण किया. इसमें सात लाख पैदल, 22,000 घुड़सवार और 651 हाथी थे.
    महाराजा कृष्णदेव राय को अपने शासनकाल में सबसे पहले  के आक्रमण का सामना करना पड़ा. महमूद शाह ने इस युद्ध को ‘जेहाद’ कह कर सैनिकों में मजहबी उन्माद भर दिया; पर कृष्णदेव राय ने ऐसा भीषण हमला किया कि महमूद शाह और उसकी सेना सिर पर पाँव रखकर भागी. इसके बाद उन्होंने कृष्णा और तुंगभद्रा नदी के मध्य भाग पर अधिकार कर लिया. महाराजा की एक विशेषता यह थी कि उन्होंने अपने जीवन में लड़े गये हर युद्ध में विजय प्राप्त की.
    महमूद शाह की ओर से निश्चिन्त होकर राजा कृष्णदेव राय ने उड़ीसा राज्य को अपने प्रभाव क्षेत्र में लिया और वहाँ के शासक को अपना मित्र बना लिया.1520 में उन्होंने बीजापुर पर आक्रमण कर सुल्तान यूसुफ आदिलशाह को बुरी तरह पराजित किया. उन्होंने गुलबर्गा के मजबूत किले को भी ध्वस्त कर आदिलशाह की कमर तोड़ दी. इन विजयों से सम्पूर्ण दक्षिण भारत में कृष्णदेव राय और हिन्दू धर्म के शौर्य की धाक जम गयी.
    महाराजा के राज्य की सीमायें पूर्व में विशाखापट्टनम, पश्चिम में कोंकण और दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप के अन्तिम छोर तक पहुँच गयी थीं. हिन्द महासागर में स्थित कुछ द्वीप भी उनका आधिपत्य स्वीकार करते थे. राजा द्वारा लिखित ‘आमुक्त माल्यदा’ नामक तेलुगु ग्रन्थ प्रसिद्ध है. राज्य में सर्वत्र शान्ति एवं सुव्यवस्था के कारण व्यापार और कलाओं का वहाँ खूब विकास हुआ. उन्होंने विजयनगर में भव्य राम मन्दिर तथा हजार मन्दिर (हजार खम्भों वाले मन्दिर) का निर्माण कराया.
  • 4. पुष्यमित्र शुंग

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    मोर्य वंश के महान सम्राट चन्द्रगुप्त के पोत्र अशोक ने कलिंग युद्ध के पश्चात् बौद्ध धर्म अपना लिया। अशोक ने एक बौध सम्राट के रूप में लग भाग २० वर्ष तक शासन किया। अहिंसा का पथ अपनाते हुए उसने पूरे शासन तंत्र को बौद्ध धर्म के प्रचार व प्रसार में लगा दिया। अत्यधिक अहिंसा के प्रसार से भारत की वीर भूमि बौद्ध भिक्षुओ व बौद्ध मठों का गढ़ बन गई थी। उससे भी आगे जब मोर्य वंश का नौवा अन्तिम सम्राट व्रहद्रथ मगध की गद्दी पर बैठा ,तब उस समय तक आज का अफगानिस्तान, पंजाब व लगभग पूरा उत्तरी भारत बौद्ध बन चुका था । जब सिकंदर व सैल्युकस जैसे वीर भारत के वीरों से अपना मान मर्दन करा चुके थे, तब उसके लगभग ९० वर्ष पश्चात् जब भारत से बौद्ध धर्म की अहिंसात्मक निति के कारण वीर वृत्ति का लगभग ह्रास हो चुका था, ग्रीकों ने सिन्धु नदी को पार करने का साहस दिखा दिया।
    सम्राट व्रहद्रथ के शासनकाल में ग्रीक शासक मिनिंदर जिसको बौद्ध साहित्य में मिलिंद कहा गया है ,ने भारत वर्ष पर आक्रमण की योजना बनाई। मिनिंदर ने सबसे पहले बौद्ध धर्म के धर्म गुरुओं से संपर्क साधा,और उनसे कहा कि अगर आप भारत विजय में मेरा साथ दें तो में भारत विजय के पश्चात् में बौद्ध धर्म स्वीकार कर लूँगा। बौद्ध गुरुओं ने राष्ट्र द्रोह किया तथा भारत पर आक्रमण के लिए एक विदेशी शासक का साथ दिया।
    सीमा पर स्थित बौद्ध मठ राष्ट्रद्रोह के अड्डे बन गए। बोद्ध भिक्षुओ का वेश धरकर मिनिंदर के सैनिक मठों में आकर रहने लगे। हजारों मठों में सैनिकों के साथ साथ हथियार भी छुपा दिए गए। दूसरी तरफ़ सम्राट व्रहद्रथ की सेना का एक वीर सैनिक पुष्यमित्र शुंग अपनी वीरता व साहस के कारण मगध कि सेना का सेनापति बन चुका था । बौद्ध मठों में विदेशी सैनिको का आगमन उसकी नजरों से नही छुपा । पुष्यमित्र ने सम्राट से मठों कि तलाशी की आज्ञा मांगी। परंतु बौद्ध सम्राट वृहद्रथ ने मना कर दिया।किंतु राष्ट्रभक्ति की भावना से ओत प्रोत शुंग , सम्राट की आज्ञा का उल्लंघन करके बौद्ध मठों की तलाशी लेने पहुँच गया। मठों में स्थित सभी विदेशी सैनिको को पकड़ लिया गया,तथा उनको यमलोक पहुँचा दिया गया,और उनके हथियार कब्जे में कर लिए गए। राष्ट्रद्रोही बौद्धों को भी ग्रिफ्तार कर लिया गया। परन्तु वृहद्रथ को यह बात अच्छी नही लगी।
    पुष्यमित्र जब मगध वापस आया तब उस समय सम्राट सैनिक परेड की जाँच कर रहा था। सैनिक परेड के स्थान पर hi सम्राट व पुष्यमित्र शुंग के बीच बौद्ध मठों को लेकर कहासुनी हो गई।सम्राट वृहद्रथ ने पुष्यमित्र पर हमला करना चाहा परंतु पुष्यमित्र ने पलटवार करते हुए सम्राट का वद्ध कर दिया। वैदिक सैनिको ने पुष्यमित्र का साथ दिया तथा पुष्यमित्र को मगध का सम्राट घोषित कर दिया।
    सबसे पहले मगध के नए सम्राट पुष्यमित्र ने राज्य प्रबंध को प्रभावी बनाया, तथा एक सुगठित सेना का संगठन किया। पुष्यमित्र ने अपनी सेना के साथ भारत के मध्य तक चढ़ आए मिनिंदर पर आक्रमण कर दिया। भारतीय वीर सेना के सामने ग्रीक सैनिको की एक न चली। मिनिंदर की सेना पीछे हटती चली गई । पुष्यमित्र शुंग ने पिछले सम्राटों की तरह कोई गलती नही की तथा ग्रीक सेना का पीछा करते हुए उसे सिन्धु पार धकेल दिया। इसके पश्चात् ग्रीक कभी भी भारत पर आक्रमण नही कर पाये। सम्राट पुष्य मित्र ने सिकंदर के समय से ही भारत वर्ष को परेशानी में डालने वाले ग्रीको का समूल नाश ही कर दिया। बौद्ध धर्म के प्रसार के कारण वैदिक सभ्यता का जो ह्रास हुआ,पुन:ऋषिओं के आशीर्वाद से जाग्रत हुआ। डर से बौद्ध धर्म स्वीकार करने वाले पुन: वैदिक धर्म में लौट आए। कुछ बौद्ध ग्रंथों में लिखा है की पुष्यमित्र ने बौद्दों को सताया .किंतु यह पूरा सत्य नही है। सम्राट ने उन राष्ट्रद्रोही बौद्धों को सजा दी ,जो उस समय ग्रीक शासकों का साथ दे रहे थे। पुष्यमित्र ने जो वैदिक धर्म की पताका फहराई उसी के आधार को सम्राट विक्र्मद्वित्य व आगे चलकर गुप्त साम्रराज्य ने इस धर्म के ज्ञान को पूरे विश्व में फैलाया।
  • 3. चन्द्रगुप्त मोर्य

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    चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म 340 ईसापूर्व को पाटलिपुत्र में हुआ था ,वह पहला मौर्य सम्राट था और अखंड भारत पर भी राज करने वाला  करने वाला पहला सम्राट था । जन्म से ही वह गरीब था ,उसके पिता की मृत्यु उसके जन्म से पहले ही हो गई थी.. चंद्रगुप्त मौर्य मोरिया नाम के काबिले से ताल्लुक रखता था जो शाक्यो के रिश्तेदार थे ।
    10 वर्ष की उम्र में उसकी माँ मुरा की मृत्यु हो गई थी और तब चाणक्य नाम के ब्राह्मण ने अनाथ चंद्रगुप्त को पाला । चाणक्य को धनानंद से बदला लेना था और नंद के भ्रष्ट राज को ख़त्म करना था । चाणक्य ने चंद्रगुप्त सम्राट जैसी बात देखि और इसीलिए वे उसे तक्षशिला ले गए । तक्षशिला में शिक्षा देने के बाद चाणक्य और चंद्रगुप्त ने पहले तो तक्षिला पर विजय पाई और आस पास के कई कबीलों और छोटे राज्यों को एक कर पाटलिपुत्र पर हमला किया ।
    320 ईसापूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य मगध का सम्राट बन चूका था । इसके बाद उसने कई युद्ध लड़े और सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप पर एकछत्र राज किया ।
    सिकंदर की मृत्यु के बाद उसकी सेनापति सेल्यूकस यूनानी साम्राज्य का शासक बना और उसने चंद्रगुप्त मौर्य पर आक्रमण कर दिया। पर उसे मुँह की खानी पड़ी। काबुल, हेरात, कंधार, और बलूचिस्तान के प्रदेश देने के साथ-साथ वह अपनी पुत्री हेलना का विवाह चंद्रगुप्त से करने के लिए बाध्य हुआ। इस पराजय के बाद अगले सौ वर्षो तक यूनानियों को भारत की ओर मुँह करने का साहस नहीं हुआ। चंद्रगुप्त मौर्य का शासन-प्रबंध बड़ा व्यवस्थित था। इसका परिचय यूनानी राजदूत मेगस्थनीज़ के विवरण और कौटिल्य के ‘अर्थशास्त्र’ से मिलता है। लगभग-300 ई. पू. में चंद्रगुप्त ने अपने पुत्र बिंदुसार को गद्दी सौंप दी।
    मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त को नंद वंश के उन्मूलन तथा पंजाब-सिंध में विदेशी शासन का अंत करने का ही श्रेय नहीं है वरन उसने भारत के अधिकांश भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया।
    प्लूटार्क ने लिखा है कि चंद्रगुप्त ने 6 लाख सेना लेकर समूचे भारत पर अपना आधिपत्य स्थापित किया। जस्टिन के अनुसार सारा भारत उसके क़ब्ज़े में था। महावंश में कहा गया है कि कौटिल्य ने चंद्रगुप्त को जंबूद्वीप का सम्राट बनाया। प्लिनी ने, जिसका वृत्तान्त मैगस्थनीज़ की इंडिका पर आधारित है, लिखा है कि मगध की सीमा सिंधु नदी है। पश्चिम में सौराष्ट्र चंद्रगुप्त के अधिकार में था। इसकी पुष्टि शक महाक्षत्रप रुद्रदामन के जूनागढ़ अभिलेख से होती है।
    298 ईसापूर्व में चंद्रगुप्त मौर्य की मृत्यु हो गई ।
  • 2. पोरस

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    जितना बड़ा अन्याय और धोखा इतिहासकारों ने महान पौरस के साथ किया है उतना बड़ा अन्याय इतिहास में शायद ही किसी के साथ हुआ होगा।एक महान नीतिज्ञ,दूरदर्शी,शक्तिशाली वीर विजयी राजा को निर्बल और पराजित राजा बना दिया गया….
    ग्रीक के फिल्म-निर्माता ओलिवर स्टोन ने कुछ हद तक सिकन्दर की हार को स्वीकार किया है..  अलेक्जेंडर फिल्म में दिखाया गया है कि एक तीर सिकन्दर का सीना भेद देती है और इससे पहले कि वो शत्रु के हत्थे चढ़ता उससे पहले उसके सहयोगी उसे ले भागते हैं इस फिल्म में ये भी कहा गया है कि ये उसके जीवन की सबसे भयानक त्रासदी थी और भारतीयों ने उसे तथा उसकी सेना को पीछे लौटने के लिए विवश कर दिया.. चूँकि उस फिल्म का नायक सिकन्दर है इसलिए उसकी इतनी सी भी हार दिखाई गई है तो ये बहुत है, नहीं तो इससे ज्यादा सच दिखाने पर लोग उस फिल्म को ही पसन्द नहीं करते..वैसे कोई भी फिल्मकार अपने नायक की हार को नहीं दिखाता है.
    अब देखिए कि भारतीय बच्चे क्या पढ़ते हैं इतिहास में–“सिकन्दर ने पौरस को बंदी बना लिया था..उसके बाद जब सिकन्दर ने उससे पूछा कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाय तो पौरस ने कहा कि उसके साथ वही किया जाय जो एक राजा के साथ किया जाता है अर्थात मृत्यु-दण्ड..सिकन्दर इस बात से इतना अधिक प्रभावित हो गया कि उसने वो कार्य कर दिया जो अपने जीवन भर में उसने कभी नहीं किए थे..उसने अपने जीवन के एक मात्र ध्येय,अपना सबसे बड़ा सपना विश्व-विजेता बनने का सपना तोड़ दिया और पौरस को पुरस्कार-स्वरुप अपने जीते हुए कुछ राज्य तथा धन-सम्पत्ति प्रदान किए..तथा वापस लौटने का निश्चय किया और लौटने के क्रम में ही उसकी मृत्यु हो गई..”
    ये कितना बड़ा तमाचा है उन भारतीय इतिहासकारों के मुँह पर कि खुद विदेशी ही ऐसी फिल्म बनाकर सिकंदर की हार को स्वीकार कर रहे रहे हैं और हम अपने ही वीरों का इसतरह अपमान कर रहे हैं.. ये भारतीयों का विशाल हृदयतावश उनका त्याग था जो अपनी इतनी बड़ी विजय गाथा यूनानियों के नाम कर दी.. भारत दयालु और त्यागी है यह बात तो जग-जाहिर है और इस बात का इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है..? क्या ये भारतीय इतिहासकारों की दयालुता की परिसीमा नहीं है..? वैसे भी रखा ही क्या था इस विजय-गाथा में; भारत तो ऐसी कितनी ही बड़ी-बड़ी लड़ाईयाँ जीत चुका है कितने ही अभिमानियों का सर झुका चुका है फिर उन सब विजय गाथाओं के सामने इस विजय-गाथा की क्या औकात…..है ना..?? उस समय भारत में पौरस जैसे कितने ही राजा रोज जन्मते थे और मरते थे तो ऐसे में सबका कितना हिसाब-किताब रखा जाय; वो तो पौरस का सौभाग्य था जो उसका नाम सिकन्दर के साथ जुड़ गया और वो भी इतिहास के पन्नों में अंकित हो गया (भले ही हारे हुए राजा के रुप में ही सही) नहीं तो इतिहास पौरस को जानती भी नहीं..
    पौरस ने उसे उत्तरी मार्ग से जाने की अनुमति ही नहीं दी थी..ये पौरस की दूरदर्शिता थी क्योंकि पौरस को शक था कि ये उत्तर से जाने पर अपनी शक्ति फिर से इकट्ठा करके फिर से हमला कर सकता है जैसा कि बाद में मुस्लिम शासकों ने किया भी..पौरस को पता था कि दक्षिण की खूँखार जाति सिकन्दर को छोड़ेगी नहीं और सच में ऐसा हुआ भी…उस फिल्म में भी दिखाया गया है कि सिकन्दर की सेना भारत की खूँखार जन-जाति से डरती है ..
    जब सिकन्दर ने सिन्धु नदी पार किया तो भारत में उत्तरी क्षेत्र में तीन राज्य थे-झेलम नदी के चारों ओर राजा अम्भि का शासन था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी..पौरस का राज्य चेनाब नदी से लगे हुए क्षेत्रों पर था.तीसरा राज्य अभिसार था जो कश्मीरी क्षेत्र में था.अम्भि का पौरस से पुराना बैर था इसलिए सिकन्दर के आगमण से अम्भि खुश हो गया और अपनी शत्रुता निकालने का उपयुक्त अवसर समझा..अभिसार के लोग तटस्थ रह गए..इस तरह पौरस ने अकेले ही सिकन्दर तथा अम्भि की मिली-जुली सेना का सामना किया..”प्लूटार्च” के अनुसार सिकन्दर की बीस हजार पैदल सैनिक तथा पन्द्रह हजार अश्व सैनिक पौरस की युद्ध क्षेत्र में एकत्र की गई सेना से बहुत ही अधिक थी..सिकन्दर की सहायता फारसी सैनिकों ने भी की थी..कहा जाता है कि इस युद्ध के शुरु होते ही पौरस ने महाविनाश का आदेश दे दिया उसके बाद पौरस के सैनिकों ने तथा हाथियों ने जो विनाश मचाना शुरु किया कि सिकन्दर तथा उसके सैनिकों के सर पर चढ़े विश्वविजेता के भूत को उतार कर रख दिया..पोरस के हाथियों द्वारा यूनानी सैनिकों में उत्पन्न आतंक का वर्णन कर्टियस ने इस तरह से किया है–इनकी तुर्यवादक ध्वनि से होने वाली भीषण चीत्कार न केवल घोड़ों को भयातुर कर देती थी जिससे वे बिगड़कर भाग उठते थे अपितु घुड़सवारों के हृदय भी दहला देती थी..इन पशुओं ने ऐसी भगदड़ मचायी कि अनेक विजयों के ये शिरोमणि अब ऐसे स्थानों की खोज में लग गए जहाँ इनको शरण मिल सके.उन पशुओं ने कईयों को अपने पैरों तले रौंद डाला और सबसे हृदयविदारक दृश्य वो होता था जब ये स्थूल-चर्म पशु अपनी सूँड़ से यूनानी सैनिक को पकड़ लेता था,उसको अपने उपर वायु-मण्डल में हिलाता था और उस सैनिक को अपने आरोही के हाथों सौंप देता था जो तुरन्त उसका सर धड़ से अलग कर देता था.इन पशुओं ने घोर आतंक उत्पन्न कर दिया था..
  • 1. चंद्रगुप्त विक्रमादित्य

    VIKRAMAD
    चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (शासन: 380-412 ईसवी) गुप्त राजवंश का राजा था। समुद्रगुप्त का पुत्र ‘चन्द्रगुप्त द्वितीय’ समस्त गुप्त राजाओं में सर्वाधिक शौर्य एवं वीरोचित गुणों से सम्पन्न था। शकों पर विजय प्राप्त करके उसने ‘विक्रमादित्य’ की उपाधि धारण की।  उज्जैन के विक्रमादित्य के समय ही विक्रम संवत चलाया गया था। इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक ‘सायर-उल-ओकुल’ में किया है। पुराणों और अन्य इतिहास ग्रंथों के अनुसार यह पता चलता है कि अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे।
    तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में एक ऐतिहासिक ग्रंथ है ‘सायर-उल-ओकुल’। उसमें राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है जिसमें कहा गया है कि ‘…वे लोग भाग्यशाली हैं, जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। …उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके।
    इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहां आए…।’ यह शिलालेख ह. मोहम्मद सा. के जन्म के 165 वर्ष पूर्व का है।
    चंद्रगुप्त की उपाधि केवल ‘विक्रमादित्य’ ही नहीं थी। शिलालेखों में उसे ‘सिंह-विक्रम’, ‘सिंहचन्द्र’, ‘साहसांक’, ‘विक्रमांक’, ‘देवराज’ आदि अनेक उपाधियों से विभूषित किया गया है। उसके भी अनेक प्रकार के सिक्के मिलते हैं। शक-महाक्षत्रपों को जीतने के बाद उसने उनके प्रदेश में जो सिक्के चलाए थे, वे पुराने शक-सिक्कों के नमूने के थे। उत्तर-पश्चिमी भारत में उसके जो बहुत से सिक्के मिले हैं, वे कुषाण नमूने के हैं। चंद्रगुप्त की वीरता उसके सिक्कों के द्वारा प्रकट होती है। सिक्कों पर उसे भी सिंह के साथ लड़ता हुआ प्रदर्शित किया गया है, और साथ में यह वाक्य दिया गया है, क्षितिमवजित्य सुचरितैः दिवं जयति विक्रमादित्यः पृथिवी का विजय प्राप्त कर विक्रमादित्य अपने सुकार्य से स्वर्ग को जीत रहा है। अपने पिता के समान चंद्रगुप्त ने भी अश्वमेध यज्ञ किया।
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